पृष्ठ:दासबोध.pdf/४१९

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३४० दासबोध। [ दशक १३ और वायु निश्चल और निर्विकारी है ॥१॥ बहुत समय तक ऐसा ही रहने के बाद वहां से भूगोल का प्रारम्भ होता है । अव उस भूगोल का मूल सावधान होकर सुनोः-- ॥२॥ निश्चल परब्रह्म में चंचल संकल्प उठता है; उसीको आदिनारायण, जगदीश्वर, मूलमाया, तथा षड्गुणैश्वर्यसम्पन्न भगवान् कहते हैं । अष्टधा प्रकृति उसी में रहती है ॥ ३॥ ४॥ उसके वाद गुणक्षोभिणी होती है, वहीं त्रिगुण जन्म लेते हैं, वहां से ओंकार की उत्पत्ति होती है ॥ ५॥ अकार, उकार और मकार तीनों मिल कर ओंकार होता है । इसके बाद पंचभूतों का विस्तार होता है ॥ ६ ॥ अंतरात्मा को श्राकाश कहते हैं, उससे वायु का जन्म होता से तेज का जन्म होता है ॥ ७ ॥ वायु की रगड़ से अग्नि को उत्पत्ति होती है। उसमें फिर सूर्यविम्ब प्रकट होता है ॥ ८ ॥ शीतल वायु से जल उत्पन्न होता है, जल जम कर पृथ्वी होती है ॥ ६॥ पृथ्वी में अनन्त कोटि बीजों को जातियां होती हैं; पृथ्वी और पानी का मेल होने पर उन चीजों से अंकुर निकलते हैं ॥ १० ॥ अनेक प्रकार की बेलें होती हैं; पत्र-पुष्प होते हैं; अनेक प्रकार के स्वादिष्ट फल होते हैं ॥ ११ ॥ नाना रंग के रसीले पत्र, पुष्प, फल; मूल, धान्य, अन्न, इत्यादि होते हैं ॥१२॥ अन्न से रेत (वीर्य) होता है, रेत से प्राणी उत्पन्न होते हैं-सो प्रत्यक्ष सब को मालूम ही है ॥ १३ ॥ अंडज, जारज, स्वेदज, उद्भिज सब का बीज पृथ्वी और पानी है; यही सृष्टिरचना का अद्भुत चमत्कार इस प्रकार चार खानि, चार वाणी, चौरासी लाख जीवयोनि, तीन लोक, पिंड, ब्रह्मांड सब निर्मित होते हैं ॥ १५ ॥ यों तो सम्पूर्ण अष्टधा प्रकृति मूलमाया ही में होती है, परन्तु पानी का पृथ्वी से संयोग होने पर सब जड़ चेतन जीव प्रकट होते हैं । पानी यदि न हो तो सब प्राणी मर जायें ॥१६॥ इस कथन में कोई सन्देह नहीं । वेद, शास्त्र और पुराणों से इसका विश्वास कर लेना चाहिए ॥ १७॥ जिस पर विश्वास नावे उस सन्देहयुक्त बात का ग्रहण न करना चाहिए । विश्वास के विना कोई व्यवहार नहीं होता ॥ १८ ॥ प्रवृत्ति हो, चाहे निवृत्ति हो-दोनों के व्यवहार में प्रतीति चाहिए । प्रतीति के बिना जो सन्देह में पड़े रहते हैं वे.विवेकहीन हैं ॥ १६ ॥ इस प्रकार यह सृष्टिरचना का विस्तार संक्षेप से बतलाया; अब इस विस्तार का संहार सुनो ॥ २० ॥ शादि से लेकर अंत तक जो कुछ होता