पृष्ठ:दासबोध.pdf/४२०

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समास ४ ] प्रलय-निरूपण। ३४१ है सब आत्माराम ही करता है और वही यथायोग्य इसकी व्यवस्था भी करता है ॥ २६ ॥ अब आगे प्रलय का निरूपण सुनना चाहिए। यहां पर यह समास पूर्ण होता है ॥ २२ ॥ चौथा समास-प्रलय-निरूपण । ॥ श्रीराम ।। शास्त्रों में कहा है कि, पृथ्वी का अन्त हो जाता है और सम्पूर्ण भूत नष्ट हो जाते हैं ॥१॥ सौ वर्ष तक अनावृष्टि रहती है, इससे सम्पूर्ण सृष्टि जल जाती है और पृथ्वी में ऐसे दरारे पड़ जाते हैं कि, उनमें पर्वत तक समा जाते हैं ॥२॥ बारह कलाओं करके सूर्यमण्डल तपता है; किरणों से ज्वालाएं निकलती हैं; सौ वर्ष तक सम्पूर्ण भूगोल जलता रहता है॥३॥ वसुंधरा सिंदूरवर्ण हो जाती है, शेषनाग ज्वालाओं से जल कर वेग से विप वमन करता है ॥ ४॥ उस विप की जो लपटें छूटती हैं उनसे सातो पाताल' जलते हैं । इस प्रकार पाताल लोक भी महापाचक में भस्म होते हैं ॥ ५ ॥ इसके बाद महाभूत सन्तप्त होते हैं। प्रलय-वात छूटते हैं और चारों ओर प्रलयाग्नि बढ़ता है ॥ ६ ॥ ग्यारह रुद्र कुपित होते हैं; चारह सूर्य कड़कड़ा कर फटते हैं और, प्रलयकाल में, जितने अग्नि हैं, सब एकत्र होते हैं ॥ ७ ॥ वायु और विजलियों की चोट से सारी पृथ्वी फट जाती है और उसकी सघनता चारों ओर छिन्न भिन्न हो जाती है ॥८॥ वहां मेरु की क्या गिनती है? कौन किसको सँभालता है? चन्द्रसूर्य और तारागणों की थकिया बँध जाती है ! ॥६॥ पृथ्वी अपना वीर्य (काठिन्य) छोड़ देती है; सारी पृथ्वी दगदगाने लगती है और इस प्रकार यह ब्रह्मांड-भट्ठी एकदम जल जाती है ॥ १०॥ इसके बाद खूब वृष्टि होती है और पृथ्वी जल में लय हो जाती है ॥११॥ जैसे सुना हुआ चूना जल में गल जाता है उसी प्रकार पृथ्वी भी फिर नहीं ठहरती। अपनी कठिनता छोड़ कर तुरंत ही जल में मिल जाती है ॥ १२॥ शेष, कूर्म, वाराह के नष्ट हो जाने से पृथ्वी का. आधार चला जाता है और वह अपना सत्व छोड़ कर जल में मिल जाती है ॥ १३ ॥ प्रलयमेघ उसड़ते हैं; बड़ी घोर आवाज से गर्जते हैं; विजलियां अखंड रीति से कड़कड़ाती हैं; कोलाहल मच जाता है ! ॥ १४ ॥ पर्वत