पृष्ठ:दासबोध.pdf/४३

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३२ दासबोध। 1 कवि, गणितशास्त्री, वेदान्ती, योद्धा, चित्रकार, साधु, व्याख्याता, शिल्पी, कोई भी हो, अदि उसमें प्रतिभा के लक्षण है तो वह — कवि है। समर्थ के मत से कविता केवल ग्रन्थ- रूप ही से नहीं होती; किन्तु, वह आचाररूप भी हो सकती है। साधन, पुरश्चरण, तप, तीर्थाटन, धैर्य, शौर्य और वृति आदि की क्रियायें भी कवित्व में शामिल हैं। तात्पर्य यह है कि विचार और आचार, दोनों में, ईश्वरीय दिव्य अंश-प्रतिभा का होना ही कवित्व का लक्षण है। महात्मा तुलसीदास की तरह समर्थ ने भी नरस्तुति-विषयक कविता का निषेध किया है। उनकी राय है कि " उदरशान्ति के लिए की हुई नरस्तुति की कविता में अपनी व्युत्पत्ति—बुद्धिमानी या चमत्कार-दिखलाना अधमता का लक्षण है।" समर्थ अपने दासबोध में भक्तकवि का वर्णन करते हुए प्रासादिक कविता का लक्षण बतलाते हैं:- नाना ध्यान नाना मूर्ती | नाना प्रताप नाना कीर्ती । तयापुढे नरस्तुति । तृणतुल्य वाटे ॥ ३२ ।। त्याचे भक्तीचे कौतुक । तया नाव प्रासादिक । सहज बोलतां विवेक । प्रगट होये ।। ३४ ।। "ऐसे कवि की वाणी से सहज हो-स्वाभाविक या स्वयं—जो हरिभक्ति का कौतुक प्रकट होता हो—ईश्वर के नाना प्रकार के ख्यानों का, नाना प्रकार की मूर्तियों का और नाना प्रकार के प्रताप और कीर्ति का आविभीव होता है-उसीका नाम प्रासादिक कविता है। उस कविता के सामने नरस्तुति तृणतुल्य है । " अव देखिए समर्थ के इसी विचार को महात्मा तुलसीदास, प्रासादिक कवि होने के कारण, किस काव्य-चमकृति के साथ, अपने अद्वितीय ग्रन्थ " रामचरितमानस" बतलाते हैं:- भगति-हेतु विधि-भवन विहाई । सुमिरत शारद आवति धाई ॥ कवि कोविद अस हृदय विचारी। गावहिं हरि-जस कलि-मल-हारी ॥ कीन्हे प्राकृत-जन-गुन-गाना । सिर धुनि गिरा लागि पछिताना ॥ प्र० सो०, चौ०११। भक्ति का वर्णन करने के लिए शारदा, (वाणीरूप से ) सुखमय विधि-भवन छोड़ कर, कवियों के हृदय में दौड़ आती है; और यही समझ कर कोविद कवि, कलिमल को हरण करनेवाला हरियश गाते हैं। अपने पेट के लिए, वलात् वाणी को कष्ट देकर, प्राकृतजनों के गुणगान करने से, गिरा ( सरस्वती या वाणी ) सिर धुन कर पछताती है। ऊपर के विवेचन से पाठक-गण यह बात समझ गये होंगे कि समर्थ किस श्रेणी के कवि हैं और कवि तथा काव्य के सम्बन्ध में उनके विचार कैसे हैं। अव हम उनके अन्ध-समु-