पृष्ठ:दासबोध.pdf/४३७

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३५८ दासबोध। [ दशक १४ आदि की शान्ति, वर्सी, मानगन, व्रत, उद्यापन, आदि में निस्पृह पुरुष को न जाना चाहिए-वहां का अन्न न खाना चाहिए और अपने को दीन न बनाना चाहिए ॥ ५३॥ ५४॥ लग्न-प्रसंग में न जाना चाहिए, पेट के लिए न गाना चाहिए और धन लेकर कहीं भी कीर्तन न करना चाहिए ॥ ५५ ॥ अपनी भिक्षा न छोड़ना चाहिए, पाली पाली से अन्न न खाना चाहिए और निस्पृह को मूल्य लेकर यात्रा न करना चाहिए ।। ५६ ॥ मूल्य लेकर कोई सुकृत न करना चाहिए, तनखाह लेकर पुजारी न बनना चाहिए और इनाम या जागीर यदि कोई देता भी हो, तो भी निस्पृह को न लेना चाहिए ॥ ५७ ॥ कहीं मठ बनाना न चाहिए, यदि बनाया हो तो उसे पकड़ कर रहना न चाहिए-निस्पृह पुरुप को मठाधि- पति बन कर न बैठना चाहिए ॥ ५८ ॥ मुख्य बात यह है कि, निस्पृह को सब कुछ करना चाहिए; पर स्वयं उसमें फँसना न चाहिए और अलग रह कर ही भक्तिमार्ग को स्थापित करना चाहिए ॥ ५६ ॥ प्रयत्न बिना न रहना चाहिए, आलस दृष्टि में न लाना चाहिए और देह रहते हुए उपासना का वियोगान सहना चाहिए ॥ ६० ॥ उपाधि में पड़ना न चाहिए, उपाधि शरीर में लगाना न चाहिए और अव्यवस्थित होकर भजनमार्ग मोड़ना न चाहिए ॥ ६१ ॥ बहुत उपाधिन करना चाहिए, पर उपाधि बिना भी काम नहीं चलता। सगुण- भक्ति छोड़ना न चाहिए; परन्तु ईश्वर से विभक्त होकर रहना भी अच्छा नहीं॥६२||बहुत दौड़नान चाहिए, पर एक जगह भी बहुत न रहना चाहिए, बहुत कष्ट न सहना चाहिए; पर बहुत आलस में रहना भी अच्छा नहीं ॥ ६३ ॥ बहुत बोलना न चाहिए; पर बिना बोले भी काम नहीं चलता। बहुत अन्न न खाना चाहिए; पर उपवास भी अच्छा नहीं ॥ ६४ ॥ बहुत सोना न चाहिए; पर बहुत निद्रा मोड़ना भी न चाहिए । बहुत नेम न रखना चाहिए; और न बिलकुल अनियमित ही रहना चाहिए ॥ ६५ ॥ बहुत लोगों में न रहना चाहिए; बहुत वनवास भी न करना चाहिए। देह को बहुत न पालना चाहिए; पर आत्महत्या कर लेना भी बुरा है ॥ ६६ ॥ बहुत संग न करना चाहिए; परन्तु संतसंग न छोड़ना चाहिए। कर्मठपन से काम नहीं चलता; पर अनाचार भी अच्छा नहीं है ॥ ६७ ॥ लोकाचार बहुत न छोड़ना चाहिए; परन्तु लोगों के अधीन होकर भी न रहना चाहिए, बहुत प्रीति न करना चाहिए; पर निष्ठुरता रखना भी अच्छा नहीं ॥६॥ बहुत संशय न रखना चाहिए; परन्तु बहुत स्वच्छन्द