पृष्ठ:दासबोध.pdf/४३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३६० दासबोध। [ दशक १४ (के दोष ) से बच जाता है ॥ २॥ सजन हो चाहे असजन हो-उसके यहां जो पुरुष रूखा अन्न माँग कर भोजन करता है वह मानो रोज अमृतपान करता है:- ॥३॥ भिक्षाहारी निराहारी, भिक्षा नैव प्रतिग्रहः । असंतो वापि संतो वा, सोमपानं दिने दिने । ऐसी भिक्षा की महिमा है । भिक्षा माँगना सर्वोत्तम ईश्वर को भी पसन्द है । बड़े बड़े सिद्ध योगी तक भिक्षा माँगते हैं ॥ ४॥ दत्तात्रेय, गोरखनाथ, श्रादि सिद्ध पुरुषों ने भी लोगों में भिक्षा माँगी है। भिक्षा से निस्पृहता प्रगट होती है ॥ ५॥ कोई कोई वार लगा कर भिक्षा ग्रहण करते हैं; परन्तु यह पराधीनता की बात हुई; तथा रोज एक ही घर से भिक्षा ग्रहण करने में भी स्वतंत्रता नहीं रहती ॥ ६॥ आठ आठ दिन के लिए अन्न जमा कर रखना भी अच्छा नहीं है । ऐसा करने से नित्य नूत- नता का आनन्द नहीं मिलता ॥ ७॥ नित्य नूतन नूतन स्थानों में घूमना चाहिए, खूब देशाटन करना चाहिए-तभी भिक्षा माँगने में शोभा है और तभी प्रशंसा होती है ॥८॥ जिसे भिक्षा माँगने का अखण्ड अभ्यास है उसे परदेश कहीं नहीं जान पड़ता; जहां देखो वहां, तीनों लोक, उसके लिए स्वदेश ही हैं ॥ ६॥ भिक्षा माँगने में खिझना न चाहिए, लजाना न चाहिए, थकना न चाहिए-परिभ्रमण करना चाहिए ॥ १०॥ जो पुरुप अनेकों चमत्कार करता है, सदा भगवान की कीर्ति वर्णन करता है, ऐसे पुरुष को, निस्पृहता के साथ, भिक्षा माँगते हुए देख कर छोटे-बड़े सब लोग चकित होते हैं ॥ ११ ॥ भिक्षा कामधेनु है । उससे सदा फल मिलता है । वह कोई सामान्य बात नहीं है. जो भिक्षा को अमान्य करता है वह जोगी अभागी है ॥ १२॥ भिक्षा से पहचान होती है, भिक्षा से भ्रम मिटता है और साधारण भिक्षा सब स्वीकार कर लेते हैं ॥ १३ ॥ भिक्षा एक प्रकार की निर्भयस्थिति है, भिक्षा से महंती प्रगट होती है । भिक्षा के द्वारा स्वतंत्रता मिलती और ईश्वरप्राप्ति होती है ॥ १४॥ भिक्षा में किसी प्रकार की रोक-टोक या बाधा नहीं है, भिक्षा- हारी सदा स्वतंत्र रहता है । भिक्षा के द्वारा समय को सार्थक कर सकते हैं ॥ १५॥ भिक्षा अमरबेलि है । यह फल-फूल से लदी हुई है। यह कुसमय आ पड़ने पर निर्मज पुरुष को फलदायक होती है ॥ १६ ॥ पृथ्वी में अनेक देश हैं, 'घूमने से कोई भूखों नहीं भर सकता-वह कहीं