पृष्ठ:दासबोध.pdf/४४२

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समास ३] काव्य-कला। ही नहीं ॥ २६ ॥ जिस विषय में हृदय से प्रीति होती है वहीं उसकी बाणी बोलती है। यह भक्तिभाव से करुणा-कीर्तन करता है और प्रेम में आकर नाचता है ॥ २७ ॥ मन भगवान् में लग जाता है, इससे देहभान नहीं रहता; तथा शंका और लजा भी दूर भग जाती है ॥२८॥ वह प्रेमरंग में रंग जाता है; भकिमद में मतवाला हो जाता है और अहंभाव को पैरों के नीचे डाल देता है ॥२६॥ निश्शंक होकर गाता और नाचता है। उसे लोग कहां देख पड़ते हैं ? उसकी दृष्टि में तो वह त्रैलोक्य- नायक चास करने लगता है ! ॥ ३०॥ ऐसा जो भगवान में रंग जाता है उसे और किसी बात की आवश्यकता नहीं रहती । वह स्वइच्छा से भगवान के रूप, कीर्ति और प्रताप का वर्णन करने लगता है ॥३१॥ वह भगवान् के नाना रूप, मूर्ति, प्रताए और अनन्त कीर्ति का वर्णन करता है ।.नरस्तुति उसे तृण के समान तुच्छ जान पड़ती है ॥ ३२ ॥ अस्तु ऐसा अगवद्धता जो विरत होकर संसार में रहता है उसे साधु- जन मुक्त मानते हैं ॥ ३३॥ वह अपनी भक्ति का जो रसाल वर्णन करता है उसीको 'प्रासादिक कविता' कहते हैं । वह साधारण ही जो कुछ बोलता है उसमें विवेक सरा रहता है ॥ ३४ ॥ अस्तु । श्रव साधारण तौर पर कविता का लक्षण फिर से बतलाते हैं; मुनिये । इससे श्रोताओं का हृदय सन्तुष्ट होगा:-- ॥ ३५ ॥ कविता निर्मल, सरल, स्पष्ट, और क्रमानुसार होनी चाहिए ॥ ३६॥ कविता भक्तिवलयुक्ता, अर्थप्रचुर और अहन्ता-रहित होनी चाहिए ॥ ३७ ॥ कविता कीर्ति से भरी हुई, रस्य, मधुर और विस्तृत प्रतापवाली होनी चाहिए ॥३८॥ कविता सरल, संक्षिप्त और सुलभ पद्यात्मक होनी चाहिए ॥ ३६॥ कविता मृदु, मंजुल, कोमल, भव्य, अद्भुत, विशाल, सुहावनी, मधुर और भक्तिरस ले रसाल होनी चाहिए ॥ ४० ॥ अक्षर- बन्ध, पदबन्ध, नाना चातुर्य के प्रबन्ध, नाना प्रकार के कौशल, छन्दवन्ध, धाटी, मुद्रा, आदि अनेक बाते काव्य में होनी चाहिए ॥४१॥ नाना प्रकार की युक्ति, बुद्धि, कला, सिद्धि और अन्य प्रादि का निर्वाह करके, नाना प्रकार की कविता बनानी चाहिए ॥ ४२ ॥ कविता में नाना प्रकार के साहित्य-विषयक दृष्टान्त, तर्क, युक्षित, उक्ति, सम्मति, सिद्धान्त, पूर्णपक्ष (शंका ) सहित, होना चाहिये ॥ ४३ ॥ नाना प्रकार की गति, विद्वत्ता, मति, स्फूर्ति, धारणा, धृति, आदि कविता में होना चाहिए ॥४४॥ कविता में शास्त्राधार से शंका-समाधान की बात भी होनी