पृष्ठ:दासबोध.pdf/४४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दासबोध [दशक १४ का अन्तःकरण रँग जाता है । जिस प्रकार रत्नपरीक्षक लोग रत्न के पीछे दौड़ते हैं उसी प्रकार उत्तम कीर्तन के परीक्षक उस कीर्तन को लुनने के लिए दौड़ते हैं ॥ २७ ॥ भूमिपूर्ण कीर्तन सुन कर लोगों में ईश्वर-प्रेम बढ़ता है; मन निर्मल होता है और भूतदया का संचार होता है ॥ २८ ॥ कीर्तन में व्यर्थ वचन नहीं बोलना चाहिए, व्यर्थ विवरण न करना चाहिए और विनीत होकर वक्तृत्व से लोगों को संतुष्ट करना चाहिए ॥ २६ ॥ समस्त लोगों को सारासार का विचार सिखलाना चाहिए । साहित्य और संगीत, सज्जन पुरुष को, अच्छा मालूम होता है ॥ ३० ॥ सन्च-कृठ में से सच बात मालूम हो जाने पर लोगों का मन सन्तुष्ट हो जाता है। खोटी बात को कोई नहीं मानता ॥ ३१॥ जिसके वचन वेद, शास्त्र और विद्वानों के अनुकूल नहीं होते उसके वचन कोई नहीं मानता ॥ ३२॥ जो आनन्द में आकर पूल जाता है; हँसी दिल्लगी में पड़ा रहता है उसका हित नहीं होता ॥ ३३ ॥ अलक्ष (ब्रह्म) की ओर लक्ष लगा कर उसे लखना चाहिए। लोचन, जो स्वयं द्रष्टा हैं उनको भी, देखना चाहिए। ऐसा करने से एकदम अलक्ष में लक्ष लग जाता है ॥ ३४ ॥ क्षेत्रज्ञ (आत्मा) क्षेत्र (देह ) को क्षुब्ध करता है और क्षमा से क्षमा करके उसको शान्त भी करता है; उस सर्वव्यापी क्षेत्रज्ञ (श्रात्मा ) मैं क्षमा और क्षोभ दोनों है ॥ ३५ ॥ पाँचवाँ समास-हरिकथा की रीति। ॥ श्रीराम ॥ अब बुद्धिमान् श्रोता लोगों को हरिकथा की रीति सावधान होकर सुनना चाहिए ॥ १॥ हरिकथा किस प्रकार कहना चाहिए--उसमें रंग कैसे लाना चाहिए कि, जिससे रघुनाथ-कृपा की पदवी मिले ? ॥२॥ यदि सोने में सुगंध और ईख में सुन्दर, मधुर, रलाल फल हो तो कितनी अपूर्वता की बात है ! ॥ ३ ॥ उसी प्रकार हरिदास और फिर विरक्षा, ज्ञाता और प्रेमल भत्ता तथा व्युत्पन्न होकर भी वादरहित, होना अपूर्वता ही है ॥ ४ ॥ इतना होकर भी यदि कहीं वह रागज्ञानी, ताल- ज्ञानी, सकल कलायुक्ता; ब्रह्म-ज्ञानी, और निरभिमान होकर लोगों में बर्ताव करता है तो फिर क्या कहना है ? ॥ ५॥ जिसके पास मत्सर नहीं है, जो सज्जनों को अत्यन्त प्रिय है, जो चतुरों के सब अंग जानता