पृष्ठ:दासबोध.pdf/४४६

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सगास ५] हरिकथा की रीति। है और आत्म-निष्ट है वही उत्तम हरिदास है ॥ ६॥ जयंतियां यादि नाना पर्व, अपूर्व तीर्थक्षेत्र, जहां देवाधिदेव सामर्थ्यरूप से वसता है, जो लोग नहीं मानते और सिर्फ अपने शब्दज्ञान से उन्हें मिथ्या बतलाते हैं उन पामरों को भला श्रीपति भगवान् कैसे मिल सकता है ? ॥ ७ ॥८॥ सन्देह के कारण निर्गुण में उनका मन नहीं लगता, और ब्रह्म-ज्ञान के अभिमान के कारण सगुण भी नहीं साताः इस प्रकार के दोनों ओर से नष्ट होते हैं ॥ ६॥ नागे सगुण भूर्ति के रहते हुए जो निर्गुण की कथा कहते हैं और निर्गुण का प्रतिपादन करके सगुण का उच्छेदन करते हैं वह पढतमूर्ख हैं ॥ १० ॥ वास्तव में ऐसी हरिकथा न करना चाहिए कि, जिससे दोनों पंय (सगुण और निर्गुण ) हाथ से चले जायँ । प्रस्तु; अब हरिकथा के लक्षण सुनोः- ॥ ११ ॥ सगुण मूर्ति के सम्मुख भावपूर्वक करणा-कीर्तन करना चाहिए और ईश्वर के प्रताप और कीर्ति से युक्त नाना ध्यानों का वर्णन करना चाहिए ॥ १२ ॥ इस प्रकार गान करने से सहज ही रसाल कथा सुख से निकलती भाती है और सब के अन्तःकरण में प्रेमसुख हिलोड़ने लगता ॥१३॥ कथा रचने की युति यह है कि, सगुण में निर्गुण न लाना चाहिए और दूसरों के (या श्रोताओं के ) दोप-गुण न कहना चाहिए ॥ १४ ॥ भगवान के वैभव और महत्व का नाना प्रकार से वर्णन करना चाहिए-सगुण में श्रद्धा रख कर कथा कहना साहिए ॥ १५॥ लोक-लाज छोड़ कर, धन की आस्था छोड़ कर, नित्य नूतन, कीर्तन से प्रेम रखना चाहिए ॥१६॥ देवमन्दिर के राजांगण में निश्शंक होकर लोटना चाहिए, करताली बजा कर, नाचते हुए, नामघोप करना चाहिए ॥ १७ ॥ एक देवता की कीर्ति दूसरे देवता के सामने वर्णन करना अच्छा नहीं लगता, अतएच जिसकी कीर्ति हो के सम्मुख वह कहना चाहिए ॥ १८ ॥ यदि सामने सगुण मूर्ति न हो, और साधुजन श्रोता हो, तो फिर अद्वैत- निरूपण अवश्य करना चाहिए ॥ १६ ॥ जहां मूर्ति न हो और सज्जन (साधु ) भी न हो; भाविक जन श्रोता हो, वहां पश्चात्तापयुक्त (करुणा- पूर्ण ) वैराग्य का कीर्तन करना चाहिए ॥ २० ॥ शृंगारादिक नवरसिक वर्णन में से एक शृंगार-विषय छोड़ देना चाहिए; स्त्री आदि का कौतुक न वर्णन करना चाहिए॥२१॥स्त्रियों के लावण्य का वर्णन सुन कर, सहज हो, मन में विकार या जाता है और तत्काल श्रोताओं का धैर्य भंग हो जाता है॥२२॥इस लिए उस वर्णन को ही छोड़ देना चाहिए। वह सहज