पृष्ठ:दासबोध.pdf/४४८

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समास] चातुर्य-लक्षण। है॥ ४० ॥ तथा नामस्मरण में जिसका विश्वास होता है उसको हरि- दास कहते हैं। यहां से यह समास पूर्ण होता है ॥ ४ ॥ छठवाँ समास-चातुर्य-लक्षण । || श्रीराम ॥ रूप और लावण्य का अभ्यास नहीं किया जा सकताः स्वाभाविक गुणों के लिए, कोई उपाय नहीं चलता: अतपय भागन्तुक गुणों के लिए कुछ न कुछ उपाय करना चाहिए ॥१॥ काला मनुप्य गोरा नहीं हो सकता; खुघरे मनुष्य के लिए कोई उपाय नहीं है, मूक पुरुप के वाचा नहीं फूट सकती क्योंकि ये सब स्वाभाविक गुण ॥२॥ अंधा सनुप्य डिठियार (दीठिवार-दृष्टिवाला) नहीं हो सकता; बधिर सुन नहीं सकता और पँगुया फिर पैर नहीं पा सकता, ये स्वाभाविक बात है ॥३॥ कुरूपता के लक्षण कहां तक बतलाये जायें? सारांश, स्वाभाविक होने के कारण ये बदले नहीं जा सकते ॥ ४ ॥ परन्तु अंचगुण छोड़ने से चले जाते हैं, अभ्यास करने से उत्तम गुण आ जाते हैं। इस लिए चतुर लोग विद्या छोड़ कर सुविद्या सीखते हैं ॥ ५॥ मूर्खपन छोड़ने से चला जाता है; चतुरता सीखने से आ जाती है; उद्योग करने से सब कुछ समझ में आ जाता है ॥६॥ प्रतिष्ठा पाना यदि पसन्द है तो फिर उसकी उपेक्षा क्यों करना चाहिए? विना चतुरता के ऊंची पदवी कदापि नहीं मिल सकती ॥७॥ यदि इस बात पर प्रतीति होती है तो फिर स्वहित क्यों नहीं करते ? सन्मार्ग पर चलनेवाले लोगों को सज्जन मानते हैं ॥८॥ देह का चाहे जितना शृंगार किया जाय; परन्तु यदि चतुरता नहीं है तो सब व्यर्थ है । गुण के विना ऊपर ऊपर से रूप बनाने में कोई लाभ नहीं ॥६॥ अंतर्कला (अन्तःकरण ) का शृंगार करना चाहिए, नाना प्रकार से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और संपदा प्राप्त करके सुख से भोगना चाहिए ॥ १० ॥ जो प्रयत्न नहीं करता, सीखता नहीं, शरीर से श्रम भी नहीं करता, उत्तम गुण नहीं लेता और सदा क्रोध करता है उसे सुख नहीं मिलता ॥ ११ ॥ हम दूसरे के साथ जैसा करें- गे वैसा ही उसका बदला हम को तुरंत मिलेगा। लोगों को कष्ट देने से हमको भी बहुत कष्ट उठाना पड़ेगा ॥ १२ ॥ जो न्याय से चलता है