पृष्ठ:दासबोध.pdf/४५३

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दासबोध । [दशक १४ करके उसका मर्म जानना चाहिए ॥४॥ श्रात्मा जानपन से देह की रक्षा करता है, वह द्रष्टा और अन्तक्षिी है, वह जानपन से पदार्थमात्र की परीक्षा करता है ॥ ५ ॥ वह सब देहों में वर्तता है,. इंद्रियगण को चेष्टा देता है और अनुभव से प्राणिमात्र के प्रत्यय में या जाता है ॥ ६ ॥ प्राणिमात्र के अन्तःकरण में परमेश्वर है; इस लिए सब के अन्तःकरणों को सन्तुष्ट रखना चाहिए । वही एक दाता और भोक्ता सब कुछ है ॥ ७ ॥ सम्पूर्ण जगत् के अन्तःकरण में परमात्मा वर्तता है-वही हमारे अन्त:- करण में भी विराजमान है । वही तीनों लोक के प्राणिमात्र. में है। अच्छी तरह देखो! ॥ ८ ॥ वास्तव में देखनेवाला वह एक ही है, परन्तु वह सब ठौर फैला हुआ है । वह देहप्रकृति से भिन्न भिन्न हो जाता है ॥ ॥ देह की उपाधि के कारण भिन्न भासता है; परन्तु वस्तुतः सम्पूर्ण जगत् के अन्तःकरण में वह एक ही व्याप्त है। इसमें कोई सन्देह नहीं . कि, बोलना चालना आदि सब उसीके द्वारा होता है ॥ १०॥ अपने- पराये सब लोग पक्षी, श्वापद, पशु धादिकीड़ा चीटी आदि सव देह- धारी प्राणी; खेचर, भूचर, वनचर, नाना प्रकार के जलचर-चार खानियों का विस्तार कहां तक वतलावे-सव प्राणी चेतनाशक्ति से वर्तते हैं । इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति यही देख लो कि, उस चेतनाशक्ति की और हमारी संगति अखंड बनी रहती है ॥ ११ ॥ १२॥ १३ ॥ जगत् के अन्तःकरण में जो परमात्मा व्याप्त है उसके प्रसन्न हो जाने पर (अर्थात् सब मनुष्यों के प्रसन्न हो जाने पर ) अनन्त मनुष्य हमारे पास एकत्र हो सकते हैं; और उस जगद्रूप परमात्मा को प्रसन्न करने का उपाय हमारे ही पास है ॥१४॥ वास्तव में सब को राजी रखना चाहिए, क्योंकि देह के साथ भलाई करने से वह आत्मा को प्राप्त होती है ॥ १५ ॥ दुर्जन प्राणी में जो ईश्वरांश होता है उसका स्वभाव भी वैसा ही होता है। इस लिये ऐसा श्रादमी यदि क्रोध में आ जाय तो उससे झगड़ा न करना चाहिए ॥ १६ ॥ उससे चरका ही जाना चाहिए; बाद को उस पर विचार करना चाहिए। विवेक से सव लोगों को सजन बनना चाहिए ॥१७॥ जैसे श्रोषधिभेद से एक ही जल.में नाना प्रकार का स्वाद आ जाता है वैसे-ही देहसम्बन्ध से श्रात्मत्व में भी भेद हो जाता है ॥१८॥ चाहे विष हो, चाहे अमृत हो; पर उसका आपपन नहीं जाता । इसी प्रकार साक्षित्व से प्रात्मा को पहचानना चाहिए ॥१६॥ जो अन्तनिष्ट पुरुष है वह अन्तर्निष्टा के कारण श्रेष्ठ है। जगत् में जो जगदीश है उसे वह पहचानता है ॥ २० ॥ जैसे कोई आंख से ही आंख को देखे या मन