पृष्ठ:दासबोध.pdf/४५५

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दासबोध। [ दशक १४ फल मिल सकता है ? देखते क्यों नहीं ! ॥ ३६॥ अखंड ध्यान से यदि किसीका हित न हो तो फिर उसे पतित जानना चाहिए; इस बात को सुचित्त होकर अच्छी तरह विचारना चाहिए ॥ ३७ ॥ ध्यान धरता है सो कौन है और ध्यान में आता है सो कौन है-दोनों में अनन्य लक्षण होना चाहिए ॥ ३८॥ वास्तव में अनन्य तो स्वाभाविक ही है; पर अड़- चन यह है कि, साधक खोज कर देखता नहीं, और जो ज्ञानी पुरुष है वह उसका मनन करके समाधान में मग्न रहता है ॥ ३६॥ अस्तु, ये अनुभव के कास हैं; अनुभव के बिना भ्रम से बाधा में पड़ते हैं। साधारण लोग जनरूढ़ि के अनुसार चलते हैं ॥४०॥ जो अवलक्षणी-अभागी हैं वे जनरूढ़िवाले ध्यान का लक्षण ही पकड़े रहते हैं। बाजारी लोग (साधा- रण जन या Ordinary Men ) सत्यासत्य नहीं जानते ॥४१॥ ऐसे लोग गप्प उड़ा कर व्यर्थ ही हुल्लड़ मचाते हैं। पर मन में सोचने पर, अन्त में, सभी मिथ्या जान पड़ता है ॥ ४२ ॥ कोई एक मनुष्य (स्थूल मूर्ति ध्यान में लाकर ) मानस पूजा कर रहा था। (मुक्कुट के कारण फूलों की माला मूर्ति के गले में न जाती थी;) कोई एक दूसरा मनुष्य, (अन्तःसाक्षित्वशक्ति से यह बात जान कर) उससे कहता है कि, "मुकुट उतार कर माला डालो तब ठीक होगा" ॥४३॥ अरे भाई, मन में क्या अकाल था जो श्रोछी माला कल्पित की ? (देशी दशा में ओछी साला की कल्पना करनेवाला और मुकुट उतार कर माला डालने की युक्ति बतानेवाला) दोनों को निपट मूर्ख जानना चाहिए ॥४४॥ प्रत्यक्ष कुछ कष्ट उठाना नहीं पड़ता, डोरा से फूल गूंथने नहीं पड़ते; फिर भी कल्पना की माला ओछी क्यों बनाते हैं ! ॥ ४५ ॥ जितने बुद्धि-विहीन प्राणी हैं वे सभी मूर्ख हैं; उनसे कौन खटपट करे!॥४६॥जो जैसा परमार्थ करता है उसकी वैसी ही रीति पृथ्वी पर फैल जाती है और सात पांच का अभिमान बढ़ जाता है ॥४७॥ प्रत्यय के बिना अभिमान करना ऐसा है जैसे धोखा देकर रोगी को मारना । वहां सभी अनुमान है; ज्ञान का कहां ठिकाना है ? ॥४८॥ अतएव सम्पूर्ण अभिमान छोड़ देना चाहिए, प्रतीति-पूर्वक विवेक प्राप्त करना चाहिए और मायारूप पूर्वपक्ष का विवेकबल से खंडन करना चाहिए ॥ ४६॥