पृष्ठ:दासबोध.pdf/४५६

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समास ] शाश्वत-निरूपण। ३७७ नववाँ समास-शाश्वत-निरूपण । ॥ श्रीराम ।। पीछे पिंड का कौतुक देखा गया और श्रात्मानात्म का विवेक भी किया गया; उससे यह मालूम हो गया कि, पिंड अनात्मा है और श्रात्मा, जो सब का कर्ता है, उससे अलग है ॥१॥ इसके सिवाय यह भी मालूम हो गया कि, उस आत्मा के तई अनन्य रहना चाहिए । अब, ब्रह्मांड-रचना का विचार करना चाहिए ॥२॥श्रात्मा और अनात्मा का विवेक पिंड में है और सार-श्रसार का विवेक ब्रह्मांड में है-दोनों का विवरण कर कर के उसकी मजा लेनी चाहिए ॥३॥ पिंड कार्य का ब्रह्मांड (पंचभूत) कारण है, इसका विवरण किस प्रकार करना चाहिए सो आगे बतलाया है ॥ ४॥ असार नाशवंत को कहते हैं और सार शाश्वत को कहते हैं । जिसका कल्पांत में नाश हो जाता है वह सार नहीं है ॥ ५॥ पृथ्वी जल से हुई है और आगे वह जल में ही लय होती है। जल की उत्पत्ति तेज से हुई है ॥ ६ ॥ उस जल को तेज सुखा डालता है-अर्थात् महत्तेज से जलका लय हो जाता है; इसके बाद तेज ही वच रहता है ॥ ७॥ तेज वायु से होता है, इस लिए वायु ही उसको लय करता है, इस प्रकार तेज के लय हो जाने पर फिर वायु ही वचरहता है ॥ ८॥ वायु गगन से होता है, इस लिए अन्त में उसीम वह लय भी हो जाता है । यह कल्पान्त का वर्णन वेदान्तशास्त्र में है ॥ ६ ॥ गुणमायाँ और मूलमाया भी, अन्त में परब्रह्म में लय हो जाती हैं । अन, उस पर- ब्रह्म का विवरण करने के लिए विवेक चाहिए ॥ १०॥जो सब उपाधियों का अन्त है, जहां दृश्य की खटपट नहीं है, ऐसा वह निर्गुण परब्रह्म सर्व में व्याप्त है ॥ ११॥ चाहे जितने कल्पान्त हुश्रा करें; पर तौभी उसका नाश नहीं है. । माया त्याग कर शाश्वत को पहचानना चाहिए ॥ १२ ॥ ईश्वररूप अन्तरात्मा सगुण है, इसी सगुण से निर्गुण मिलता है और निर्गुण के ज्ञान से विज्ञान (अनुभवात्मक ज्ञान) होता है ॥ १३ ॥ जो कल्पनातीत निर्मल है वहां माया मल कहां से आया? मिथ्यात्व से, अर्थात् माया से, यह सारा दृश्य होता जाता है ॥ १४ ॥ जो होता है और एकदम चला जाता है वह तो प्रत्यक्ष देख ही पड़ता है; पर जिसमें होना या जाना नहीं है उसे (उस परब्रह्म को) विवेक से पहचानना चाहिए ॥ १५॥ एक शान है, एक अशान है और एक विपरीतशान है-