पृष्ठ:दासबोध.pdf/४५७

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३७८ दासबोध । [ दशक १४ इस त्रिपुटी का लय होना ही विज्ञान (या अद्वैतानुभवज्ञान) है ॥ १६ ॥ वेदांत, सिद्धान्त और धादांत' (स्वानुभव ) की प्रतीति प्राप्त करना चाहिए। वह निर्विकार परब्रह्म सर्वत्र सदा प्रकाशित रहता है ॥१७॥ उसे (उस सदोदित निर्विकार परब्रह्म को) ज्ञानदृष्टि से देखना चाहिए और देख कर उसीमें अनन्य ( या लीन ) रहना चाहिए; इसीको मुख्य प्रात्मनिवेदन कहते हैं ॥ १८॥ दृष्टि को दृश्य देख पड़ता है, मन को भास भासता है; पर अविनाशी परब्रह्म दृश्य और भास दोनों से परे है * ॥ १६ ॥ विचार करने से जान पड़ता है कि, परब्रह्म अत्यंत दूर है; पर वास्तव में वह भीतर बाहर, सब जगह, व्याप्त है-उसका अन्त ही नहीं है-अनन्त है-उपमा किसकी दें? ॥ २०॥ चंचल स्थिर नहीं होता और निश्चल कभी चलता नहीं । वादल आते जाते रहते हैं; पर नाकाश अचल रहता है ॥ २१ ॥ जो विकार से बढ़ता है, घटता है उसमें शाश्वतता कहाँ से हो सकती है ? सब कुछ कल्पांत में लय हो जाता है ॥ २२ ॥ जो अन्तःकरण में ही भ्रमित है, जो मायासंभ्रम से सम्भ्रमित है, उसे इस अपार चक्र का बोध कैसे हो सकता है ? ॥ २३ ॥ संकोच से व्यवहार नहीं होता, संकोच से सिद्धान्त नहीं मालूम होता. और संकोच से अन्तःकरण में परमात्मा का आकलन नहीं होता ॥२४॥ यदि वैद्य की प्रतीति न आती हो और संकोच भी न छोड़ता हो तो फिर जान लेना चाहिए कि, यह रोगी नहीं बचेगा ॥ २५॥ जिसने राजा को पहचान लिया है वह किसी ऐसे-वैसे को राव नहीं कह सकता- जिसने परमात्मा को पहचान लिया है उसे परमात्मरूप ही समझो (क्योंकि बिना परमात्मरूप हुए परमात्मा को कोई पहचान ही नहीं सकता) ॥ २६ ॥ जिसे मायिक का डर है वह नीच क्या बतलावेगा? चार करके देखने से सव कुछ स्पष्ट है ॥ २७ ॥ संकोच माया के इस ओर है और परब्रह्म उस ओर है-वह इधर उधर, दोनों ओर, सदोदित है ॥ २८ ॥ मिथ्या का संकोच करना, और भ्रम से और का और ही करना, विवेक के लक्षण नहीं हैं ॥ २६ ॥ जितना कुछ खोटा है सब छोड़

  • दृष्टि से, अर्थात् चर्मचक्षु से, वह परब्रह्म नहीं दिख सकता है, क्योंकि वह दृश्य से परे

है-इसी तरह भास से, अर्थात् मन से, वह परब्रह्म नहीं भासता; क्योंकि वह भास से भी परे है; इस लिए दृश्यात्मक चक्षु या भासात्मक मन, ये दोनों, जहां नहीं रहते-जब दृदय अदृश्य हो जाता है; मन उन्मन हो जाता है. और अनन्यता आ जाती है तभी उसी अनिर्वाच्य दशा में--परब्रह्म ......