पृष्ठ:दासबोध.pdf/४५८

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समास १.] माया मिथ्या है। देना चाहिए, और खरे को प्रत्यय से पहचानना चाहिए । माया को त्याग करके परब्रह्म जानना चाहिए ॥ ३०॥ उसी माया का लक्षण भागे बतलाया गया है । सुचित्तता के साथ उसका विचार करना चाहिए ॥ ३१॥ दसवाँ समास-माया मिथ्या है ! ॥ श्रीराम ॥ माया दिखती है; पर नाश होती है, 'वस्तु' न दिखती है और न नाश होती है। माया सत्य जान पड़ती है; पर बिलकुल मिथ्या है ॥१॥ जैसे अभागी मनुष्य उत्ताना पड़ कर नाना प्रकार की कल्पना करता है। पर उसकी इच्छा के अनुसार कुछ नहीं होता; यही हाल माया का है ॥२॥ जैसे द्रध्यदारा का स्वप्नवैभव और नाना प्रकार के विलासयुक्त हावभाव क्षणभर के लिए जान पड़ते हैं। पर वास्तव में है वे मिथ्या- वैसी ही माया है ॥ ३ ॥ जैसे आकाश में नाना प्रकार के गंधर्वनगर (वादल इत्यादि के मिथ्या दृश्य) दिखते हैं उसी प्रकार यह माया नाना रूपों से और नाना विकारों से दिख पड़ती है ॥ ४॥ बहुरूपी का वैभव जिस प्रकार सञ्चा मालूम होता है; पर है वह मिथ्या, उसी प्रकार माया है॥ ५॥ दशहरा के शमीपत्रों की भेट को लोग सोना कहते हैं; पर है वे पत्ते, और सब जगह इसकी चाल है; वैसी ही माया है ॥ ६ ॥ जैसे मृत पुरुप का महोत्सव करना, सती की कीर्ति बढ़ाना और श्मशान में जाकर रोना मिथ्या है वैसी ही माया मिथ्या है ॥ ७॥ जैसे राख को लक्ष्मी (भभूत-विभूति-लक्ष्मी) कहते हैं, दूसरी एक और लक्ष्मी होती है (जो मंत्रित तागे के रूप में स्त्रियां गर्भ के लिए कमर में बांधे रहती हैं) और तीसरी नाममात्र की लक्ष्मी-वैसी ही माया है ॥5॥ जैसे बालविधवा स्त्री का नाम हो जन्मसावित्री और घर घर में घूमने- वाले को कुबेर कहें वैसी ही माया है ॥ ६ ॥ जैसे नाटक में द्रौपदी का पार्ट लेनेवाले पुरुष को जीर्ण वस्त्र की तृष्णा उत्पन्न हो, अथवा किसी नदी का नाम पयोष्णी हो वैसी ही माया है ॥ १० ॥ जैसे बहुरूपी राम ग्रामीणों को सोंग दिखलाता हो, और 'महाराज' कह कर लघुत्व प्रगट करता हो; वैसी ही माया है ॥ ११ ॥ जैसे अन्नपूर्णा तो नाम है और घर में शन्न हो न मिलता हो, नाम तो सरस्वती है; पर पढ़ती नहीं,