पृष्ठ:दासबोध.pdf/४७०

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समास ५] चंचल के लक्षण। है ! इतना जान लेने पर-उस जगदांतरात्मा को जान लेने से-अपने को अपना मिल जाता है ॥ १८ ॥ अन्तर्निष्टों का दर्जा बहुत ऊंचा है श्रीर बहिर्मुख (अर्थात् ऊपर ऊपर का विचार करनेवाले या अन्तरात्मा का विचार न करनेवाले लोगों की संगति खोटी है; यह बात चतुर लोग ही जान सकते हैं। मूर्ख क्या जाने ? ॥ १६॥ सब का मन राजी रखने से न जाने कौन किसको सहायता देने लगता है; परन्तु सब का मन राजी न रखने से भाजी के समान क्षुद्र पदार्थ भी नहीं मिल सकता ॥ २० ॥ ऐसा प्रत्यन हो रहा है (जैसा ऊपर कहा है ) । अलक्ष में लक्ष लगाना चाहिए; दक्ष ले भेट करने में दक्ष को समाधान होता है ॥ २१ ॥ मन से मन मिल जाने पर-(अनन्य होने पर)-परब्रह्म को देख सकते हैं और मायारूप चंचल चक्र को पार कर जाते हैं ॥ २२ ॥ एक बार वहां तक पहुँच कर जब ज्ञानचन से उसे देख आते हैं तब तो फिर वह सदा सर्वत्र आसपास देख पड़ता है (उससे रहित कोई स्थल देख ही नहीं पड़ता;) परन्तु चर्मचक्ष से उसे नहीं देख सकते ॥ २३ ॥ यह चंचल (माया)लन शरीरों में निरन्तर हलचल किया करती है; परन्तु परब्रह्म सदा सब ठौर निश्चल है ।। २४ ॥ चंचल जब एक ओर को दौड़ने लगता है तब दूसरी ओर कुछ नहीं रहता। यह कभी नहीं हो सकता कि, चंचल सब ओर बना रहे, या सम्पूर्ण रहे ॥ २५ ॥ चंचल से तो चंचल का ही काम नहीं चलता-चंचल से सारे चंचल का ही विचार नहीं हो सकता; फिर जो निश्चल और अपार परब्रह्म है वह चंचल से कैसे अनु- मान में आ सकता है ? * ॥ २६ ॥ मान लो, आग्नेय वाण श्राकाश में चला जा रहा है, पर क्या कभी वह आकाश का अन्त या पार पा सकता है ? कभी नहीं; बीच में बुझ जाना उसका स्वभाव ही है ॥२७॥ मनोधर्म एकदेशीय होने पर 'वस्तु' का आकलन कैसे हो सकता है ? ऐसा अपयशी पुरुप (एकदेशीय मनोधर्मवाला) निर्गुण छोड़ कर सर्व- ब्रह्म कहता है ॥ २८॥ जहां सारासार-विचार नहीं है वहां सारा अंध- कार ही समझो । बेसमझ छोकरा (अबोध बालक) सत्य छोड़ कर मिथ्या ग्रहण करता है ॥ २६ ॥ ब्रह्मांड के महाकारण, अर्थात् मूलमाया, से यह पंचमहाभूतों का समुदाय उत्पन्न हुअा है; परन्तु महावाक्य का विवरण अलग ही है ॥ ३० ॥ महत्तत्व ही को महद्भूत कहते हैं और

  • मन चंचल रख कर माया का ही विवरण नहीं कर सकते; फिर निश्चल और अपार

परब्रह्म का अनुमान कैसे किया जा सकता है ?