पृष्ठ:दासबोध.pdf/४७५

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दासबोध। . 1 दशक १५ हैं ॥ २६ ॥ इसी तरह भेद हो गया है; पर एक का भेद दूसरे को नहीं मालूम होता । परन्तु ज्ञान हो जाने पर यह आत्मा का भेद नहीं रहता (ज्ञानी पुरुप सारे जगत् में एक ही आत्मा देखता है) ॥ २७ ॥ यद्यपि देहप्रकृति के कारण आत्मत्व में भेद भासता है तथापि यह वात बहुत लोग जानते हैं (कि, वस्तुतः भेद नहीं है ) ॥ २८ ॥ देख सुन कर जान लेते हैं, चतुर लोग मन परखते हैं, विचक्षण लोग गुप्तरूप से (सूक्ष्मता से) सभी कुछ समझ लेते हैं ॥ २६ ॥ जो बहुतों का पालन करता है वह बहुतों का अन्तःकरण जानता है और विचक्षणता के साथ सब कुछ मालूम कर लेता है! ॥३०॥ पहले मन परख लेते हैं, तब विश्वास करते हैं-इसी रीति से प्राणिमात्र वर्तते हैं ॥ ३१ ॥ यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात और ठीक है कि, स्मरण के वाद विस्मरण होता है। अपना, ही रखा हुया पदार्थ मनुष्य स्वयं भूलता है ॥ ३२ ॥ अपना ही अपने को याद नहीं आता, जो कुछ कह चुके हैं उसीका स्मरण नहीं पाता। अनन्त कल्पनाएं उठती हैं-कहां तक ध्यान में रखी जायँ ?॥३३॥ ऐसा यह चंचल-चक्र है, कुछ ठीक है; कुछ टेढ़ा है। चाहे कोई पुरुप रंक हो और चाहे प्रत्यक्ष इन्द्र हो-सन के पीछे स्मरण-अस्मरण लगा ही है ॥ ३४ ॥ स्मरण (चैतन्य ) कहते हैं देव को और विस्मरणं (मूढ़ता) कहते हैं दानव को, और मनुष्य स्मरण-विस्मरण दोनों से वर्तते हैं ॥३५॥ इसी लिए देवी और दानवी ये दो सम्पदा हैं-इस बात की प्रतीति, विवेकसहित, मन में लाना चाहिए ॥३६ ॥ जैसे दर्पण में नेत्र ही से नेत्र देखा जाता है वैसे ही विवेक से विवेक जानना चाहिए, और आत्मा से आत्मा पहचानना चाहिए ॥३७॥ जैसे स्थूल से स्थूल को खुजलाते हैं वैसे ही सूक्ष्म को समझना चाहिए और संकेत से संकेत को मन में लाना चाहिए ॥ ३८ ॥ विचार से विचार जानना चाहिए, अंतरात्मा से अन्तरात्मा जानना चाहिए और दूसरे के अंतःकरण में प्रवेश करके उसका अंतःकरण भी जानना चाहिए ॥ ३६॥ स्मरण में विस्मरण होना ही भेद का लक्षण है । चाहे जो हो, यदि वह एकदेशीय (संकोचित) होता है तो वह परिपूर्ण नहीं हो सकता ॥४०॥ आगे सीखता है, पीछे भूलता है; आगे उजेला है, पीछे अंधेरा है; सब कुछ पहले याद भाता है, पीछे भूल जाता है ॥४१॥ तुर्या को स्मरण जानना चाहिए; सुषुप्ति को विस्मरण जानना चाहिए-ये दोनों बराबर शरीर में वर्तती रहती हैं ॥ ४२ ॥ सूक्ष्म