पृष्ठ:दासबोध.pdf/४७७

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दासबोध । [दशक १५ को देखता कौन है ? ॥ १५॥ उस पानी में अनन्त जीव वास करते हैं- इन असंख्य जीवों की स्थिति कौन जानता है ? ॥ १६ ॥ जहां जीवन (जल ) है वहां जीव हैं-यह उत्पत्ति का स्वभाव है। विचार करने से उसका अभिप्राय बहुत विस्तृत जान पड़ता है ॥ १७ ॥ भूगर्भ में नाना प्रकार का नीर है, उस नीर में शरीर है-नाना प्रकार के छोटे-बड़े जीव ह-उनको कौन जानता है! ॥ १८ ॥ कोई कोई प्राणी आकाश में रहते हैं-उन्होंने कभी पृथ्वी को देखा तक नहीं है । पक्ष निकलने पर भी ऊपर ही ऊपर उड़ जाते हैं ॥ १६ ॥ नाना प्रकार के खेचर, भूचर, वन- चर और जलचर प्रादि चौरासी लक्ष जीवयोनियों को कौन जानता है? ॥ २०॥ उष्ण तेज को छोड़ कर सब जगह जीवों का वास है । कल्पना से प्राणी होते हैं। इन सब को कौन जानता है? ॥ २१ ॥ कोई नाना प्रकार की सामयों से बनते हैं, कोई इच्छामात्र से उत्पन्न होते हैं और कोई वचन निकलते ही शाप देह पा जाते हैं ॥ २२॥ कोई बाजीगरी के देह होते हैं; कोई गारुड़ी के होते हैं और कोई देवताओं के देह होते है-ऐसे नाना प्रकार के देह होते हैं ॥ २३ ॥ कोई क्रोध से होते हैं, कोई तप से जन्मते हैं और कोई उःशाप से पूर्वदेह पाते हैं ॥ २४ ॥ ऐसी भग- वान् की करनी है-कहां तक बतलाई जाय ? विचित्र माया के कारण यह सब होता जाता है।॥२५॥यह माया (प्रकृति) नाना प्रकार के ऐसे अवघड़ काम कर डालती है कि, जिनको न कभी किसीने देखा है और न सुना है। उसकी सारी विचित्र कला समझना चाहिये ॥ २६ ॥ लोग थोड़ा बहुत समझ लेते हैं, पेट भर के लिए विद्या सीख लेते हैं, और इतने ही से व्यर्थ के लिए ज्ञातापन का गर्व करके नष्ट होते हैं ॥२७॥ जो अंतरात्मा सब में है वही एक सर्वात्मा ज्ञानी है । उसकी महिमा जानने के लिए बुद्धि कहां तक चल सकती है ! ॥ २८ ॥ सप्तकंचुक ब्रह्मांड है, उसमें सप्तकंचुक पिंड है; उस पिंड में भी न जाने कितने प्राणी वास करते हैं ! ॥ २६ ॥ जब अपने देह ही का हाल अपने को नहीं मालूम होता तब फिर सब कुछ कैसे मालूम हो सकता है ? पर लोग अल्पज्ञान ही से उतावले हो जाते हैं ॥ ३० ॥ अणुरेणु के समान जो छोटे छोटे जंतु हैं उनके तो हम विराटपुरुप हैं ! उनके हिसाब से तो हमारी आयु बहुत बड़ी है ! ॥ ३१ ॥ उनके बर्ताव करने के अनेक रीति-रवाज होते हैं; ऐसा कौन है जो ये सब कौतुक जानता हो ? ॥३२॥ परमेश्वर की करनी धन्य है; अन्तःकरण में उसका अनुमान भी नहीं होता; पर यह पापिनी 'अहंता व्यर्थ के लिए घरती है ॥ ३३ ॥ अहंता छोड़ कर परमेश्वर की