पृष्ठ:दासबोध.pdf/४७८

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समास ] पिंड की उत्पत्ति। अमात्र करनी का विचार करना चाहिए पर इस काम को देखते हुए मनुष्य का जीवन बरत बोड़ा है-वह इस काम के लिए बस नहीं है ॥ ३४ ॥ यद्यपि जीवन अल्प है, देर क्षणभंगुर है और शरीर-पतन होने देर नहीं लगती, तथापि लोग व्यर्च के लिए गर्व करते हैं ! ॥ ३५॥ यद देश मलीन ठौर में जन्मा है और मलीन ही रस से बढ़ा है; तब फिर खोग इसे बड़ा किस हिसाब से कहते है ? ॥ ३६॥ यह मलीन श्रीर नणभंगुर है, इसमें व्यथा लगी ही रहती है, सदाचिता लगी रहती है: तिल पर भी लोग अपने विचार से इसे व्यर्थ के लिए बड़ा करते हैं ॥ ३७ ॥ यह शरीर और सम्पत्ति दो दिन के लिए है, जीवन में श्रादि से लेकर अन्त तक अनेक झगड़े लगे रहते है: तिस पर भी लोग टीम- टाम (ढोंग) करके व्यर्थ के लिए बड़ापन दिखाते हैं ।। ३८ ॥ चाहे जैसा ढोंग रचा जायः पर अन्त में खुल जाता है, और ग्युल जाने पर चारों ओर दुर्गध उड़ती है-बदनामी होती है-इस लिए जो पुरुष विवेक से किसी काम में लगता है वही धन्य है ॥ ३६॥ व्यर्थ के लिए ढोंग क्यों करना चाहिए ? अहंता का गड़बड़ बस करो ! विवेक से परमेश्वर को हूँड़ना सब से अच्छा है ॥ ४० ॥ नववाँ समास-पिंड की उत्पत्ति । ॥ श्रीराम ।। चारों खानियों के सार प्राणी पानी से दी बढ़ते हैं: ऐसे असंख्य होते और जाते हैं ॥ १ ॥ पंच-तत्वों का शरीर बनता है और अात्मा के साथ रह कर वर्ताव करता है; पर वास्तव में इसका मूल यदि हूँढा जाय तो जलरूप है ॥२॥ स्त्री-पुरुषों के शरीर से जलरूप वीर्य निकल कर आपस में मिलते हैं ॥ ३ ॥ फिर अन्नरस, देहरस, रक्त और शृक से उनकी थकिया बँधती है, इसके बाद वह दोनों रसों की वकिया खूब बढ़ने लगती है या गर्भ बढ़ते बढ़ते बढ़ जाता है, कोमल से कठिन हो जाता है और फिर, इसके बाद, सारे अवयवों में जल प्रविष्ट होता है ॥ ५ ॥ गर्भ सम्पूर्ण होने पर बाहर निकलता है, भूमि पर गिरते ही रोने लगता है । वस, सब का सारा शरीर इसी तरह बनता है ॥ ६ ॥ देह बढ़ती है, वुद्धि बढ़ती है, प्रारम्भ से लेकर अंत तक सब ही कुछ होता है; और देखते देखते वह सारा बढ़ता और नष्ट होता है ॥ ७ ॥ इस