पृष्ठ:दासबोध.pdf/४८

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दासबोध की आलोचना। 06 १ प्रस्तावना । श्रीसमर्थ रामदासस्वामी भारतवर्ष के कैसे महान् तत्त्ववेत्ता ही गये सो उनके संक्षिप्त जीवनचरित से पाठकों को मालूम ही हुआ होगा । उन्होंने अपने इस ग्रन्थ का नाम दासबोध " रखा है। " दास” अर्थात् रामदास-राम के सेवक और “वोध" अर्थात् शिक्षा अथवा उपदेश । यह अर्थ स्पष्ट है । समर्थ ने अपने इस ग्रन्थ के पहले ही समास में " ग्रन्थारम्भ-निरूपण " नामक विपय लिखा है । इस समास में उन्होंने स्वयं ही साधारण तौर पर अपने इस ग्रन्थ को आले.चना की है । उसमें उन्होंने पाठकों को यह सूचना दी है कि इस ग्रन्थ को आदि से लेकर अन्त तक पढ़ कर. तव अपना मत उसके विषय में प्रकट करना चाहिए; अन्यथा, एक ही दो समास पढ़ कर, उसके विषय में अपना मत स्थिर कर लेना उचित न होगा । उनके इस कथन पर पूर्ण ध्यान रख कर ही हम उस ग्रन्थ की यह आलेचना लिखने बैठे हैं । अर्थात् यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि इस आलोचना में प्रकट किये हुए मतों का विचार, पाठकों को समस्त ग्रन्थ पड़ कर ही करना चाहिए । अस्तु । प्रसिद्ध महाराष्ट्र-इतिहास-अन्वेपक प्रोफेसर राजवाड़े के

लिखे हुए एक निवन्ध से इस आले.चना के लिखने में हमें बड़ी मदद मिली है; अतएव

उक्त महाशय को यहां पर धन्यवाद देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। २--ग्रन्थ की रचना। श्रीसमर्थ रामदासस्वामी के सारे उपदेश-ग्रन्थों में दासबोध ही सब से बड़ा ग्रन्थ है। इसमें २० दशक और प्रत्येक दशक में १० समास ( अध्याय ) हैं अर्थात् कुल ग्रन्थ में २०० समास हैं । पद्य-संख्या ७७४९ । समालोचकों का मत है कि धीरे धीरे इस ग्रन्थ के वनने में दस बारह वर्ष लगे होंगे। इस ग्रन्थ के छठवें दशक के चौथे समास में गत कलियुग का मान ४७६० लिखा है । इससे जाना जाता है कि यह शाके १५८१ अर्थात् सन् १९६० ईसवी में बनाया गया होगा । शाके १५६६ में श्रीरामदास ख.मी तीर्थयात्रा से लौटे और कृष्णानदी के तीर जाकर रहने लगे | उसी समय उन्होंने ग्रन्थ-लेखन का काम प्रारम्भ किया होगा । कोई कहते हैं कि श.के १५८०-१५८१ दो वर्ष ही में यह अन्य पूरा हुआ। महीपति का कथन है कि एक ही दिन में यह ग्रन्थ पूरा हो गया। तात्पर्य यह कि इस समय इस बात का निश्चय नहीं किया जा सकता कि दासबोध के बनने में कितना समय लगा होगा । इस ग्रन्थ को सव रचना किसी निश्चित प्रकार के क्रम से नहीं है । प्रथम आठ दशक तक ठीक बँधा हुआ क्रम पाया जाता है। इसके बाद विषयों का