पृष्ठ:दासबोध.pdf/४८२

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समास १.] सिद्धान्त-निरूपण । ४०३ का परदा नीच से खींच लेने पर दोनों मिल कर एक हो जाते हैं ॥२०॥ वे दोनों (आकाश-पाताल ) एक ही है; परन्तु मन उपाधि की ओर ध्यान रख कर देखता है । उपाधि का निरास कर डालने पर भेद कैसे रख सकता है ? ॥ २१ ॥ वह शब्द से परे है, कल्पना से परे है, और मन-बुद्धि ले अगोचर है। विचारपूर्वक मन में इसका वोध करना चाहिये ॥ २२ ॥ विचार करते करते मालूम हो जाता है । परन्तु जितना कुछ मालम होता है उतना सब व्यर्व जाता है ("मालम सुश्रा"-यह ज्ञान रहते हुए मालूम होना व्यर्थ है ) कसा अवघड़ है-उसे बतलायें तो किस प्रकार? ॥२३॥ महावाक्य के अर्थ के चाच्यांश का विचार करने पर जो लक्ष्यांश निकलता है वह भी अलक्ष (परब्रह्म ) में लीन हो जाता है और उसके भागे बोलना बन्द हो जाता है ॥२४॥ जो शाश्वत को खोजता जाता है वह सच्चा शानी होता है और विकार छोड़ कर निर्विकार (परब्रह्म ) में मिल जाता है ॥ २५ ॥ सुप्तावस्था में बहुत से दुःस्वम देख पड़ते हैं, पर जग उठने पर वे मिथ्या हो जाते हैं; फिर चाहे उनकी याद आवे तो भी वे मिथ्या ही है ॥२६॥ (एक वार शान हो जाने पर फिर देह का महत्व नहीं रहता ) प्रारब्धयोग के अनुसार फिर देह रहे चाहे न रहे-नंतःकरण का विचार अवश्य अचल अटल रहता है ॥ २७ ॥ जैसे वीज अग्नि से भुंज जाने पर उसका बढ़ना बन्द हो जाता है, धैसे ही झाता का वासनारूप बीज भी, ज्ञानानि से, दग्ध हो जाता है ॥ २८ ॥ विचार से बुद्धि निश्चल हो जाती है और बुद्धि से ही कार्य- सिद्धि होती है। बड़ों की बुद्धि का विचार करने से जान पड़ता है कि, उनकी बुद्धि भी निश्चलता तक पहुँची हुई होती है ॥ २६ ॥ जो निश्चल का ध्यान करता है वह निश्चल होता है, जो चंचल का ध्यान करता है होता है और जो भूतों का ध्यान करता है वह भूत होता है ॥ ३०॥ जो अन्त पा चुका है (जिसे ब्रह्मप्राप्ति हो चुकी है ) उसका माया कुछ भी नहीं कर सकती। अन्तर्निष्ठों के लिये माया एक प्रकार की बाजीगरी है ॥ ३१ ॥ जब यह बात मालूम हो जाती है कि, माया मिथ्या है-और जब उसके मिथ्यात्व की भावना विचार से दृढ़ हो जाती है-तब अकस्मात्. सारा भय ही दूर हो जाता है ॥ ३२ ॥ अस्तु । हम- को उपासना का कृतज्ञ होना चाहिए भक्ति का प्रचार करना चाहिए और विवेक से अन्तःकरण में सब कुछ समझ लेना चाहिए ॥ ३३॥ वह चंच