पृष्ठ:दासबोध.pdf/४९०

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समान ५] अग्नि-स्तुति। यता लेते हैं ॥ ११ ॥ शुद्र के भी घर का अग्नि लाने में दोप नहीं कहा, है: अनिलब के घर का पवित्र ही है।॥ १२॥ नाना याग और अग्निहोत्र विधिपूर्वक शनि ही से होते हैं । अग्नि, तृप्त होने पर, सुप्रसन्न होता है । (और वरदान देता है)॥ १३ ॥ देव, दानव और मानव सब अग्नि से ही वर्तते हैं। अग्नि सब लोगों के लिए सहारा है ॥ १४ ॥ बड़े बड़े लोग विवाह में नाना प्रकार के अग्नि-कौतुक ले जाते हैं। पृथ्वी पर बड़ी बड़ी यात्राएं ( जुलस ) अन्निक्रीड़ा से शोभती हैं ॥ १५ ॥ रोगी लोग उपण औषधों का सेवन करके अग्नि से श्राराम होते हैं ॥ १६ ॥ ब्राह्मण मुख्य पूजनीय सूर्यदेव और हुताशन ही है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ॥ १७ ॥ लोगों में जठरानल है, सागर में बड़वानल है, भूगोल के चारो ओर भावानल है। और इसके सिवा शिवनेत्र और विद्युल्लता में भी अनल है ॥ १८ ॥ कांच की बोतल से अग्नि होता है, आग्नेय दर्पण से अग्नि निकलता है और काठ रगड़ने से चकमकी के साथ अग्नि प्रगट होता है ॥ १६॥ अग्नि सब ठौर है, कठिनता के साथ रगड़ने से प्रगट होता है। अगियासपी से गिरिकन्दराएं तक भस्म हो जाती हैं ॥२०॥ अग्नि से नाना उपाय किये जाते हैं, अग्नि से नाना प्रकार की हानि भी होती है । विवेक विना सब निरर्थक है ॥ २१ ॥ भूमंडल परं छोटे बड़े सब को अग्नि का आधार है। अग्निसुख से परमेश्वर संतुष्ट होता है ॥ २२ ॥ ऐसी अग्नि की महिमा है। वह जितनी कही जाय उतनी थोड़ी ही है । अग्निपुरुष की महिमा उत्तरोत्तर अगाध है ॥ २३ ॥ अग्नि जीवित काल में सुख देता है और मरने पर शव को भस्म करता है वह सर्वभक्षक है-उसकी वड़ाई कहां तक की जाय ? ॥ २४ ॥ अग्नि प्रलयकाल में सारी सृष्टि का संहार करता है। अग्नि से कोई भी पदार्थ नहीं बचता ॥ २५ ॥ बहुत लोग नाना प्रकार के होम करते हैं, घर घर में वलिवैश्वदेव होते हैं और नाना क्षेत्रों में देवताओं के पास दीप जलाते हैं ॥ २६ ॥ दीपाराधन और नीरांजन से लोग भगवान् की, भारती करते हैं। कड़ाही के जलते हुए तेल में हाथ डालकर सच झूठ जाना जाता है ॥ २७ ॥ अष्टधा प्रकृति और तीनों लोक-सब में अग्नि व्याप्त है। अग्नि की अगाध महिमा मुख से कहां तक वर्णन की जाय ? ॥ २८ ॥ अग्नि के चार शृंग, तीन पैर, दो शिर और सात हाथ जो शास्त्र में कहें है सो क्या बिना अनुभव के ही कहे गये हैं ? ॥ २६ ॥ ऐसा जो उपरणमूर्ति अग्नि है उसका मैंने यथामति वर्णन किया। न्यूनाधिक के लिए श्रोता लोग क्षमा करें!॥ ३०॥ ।