पृष्ठ:दासबोध.pdf/४९४

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समान ] महद्भूत-निरूपण। नीच समझता है ॥ १७ ॥ यच कर-धि, सौम्य-दृष्टि, कपट-दृष्टि, कृपा- धि श्रादि नाना प्रकार की दृष्टिग का भेद जानता है ॥१८॥ वह जिला में नाना प्रकार के स्वाद लेकर उनका भेदाभेद करना जानता है और जो जो जानता है सो सो स्पष्ट करके बतलाता है ॥२६॥ उत्तम भोजनों के परिमल, नाना सुगंधों के परिमल और नाना फलों के परि- मल वह प्राणेंद्रिय से जानता है ॥२०॥ जिल्ला ले स्वाद लेना और बोलना, हस्तन्द्रिय से लेना देना और पादेन्द्रिय से आना जाना आदि कियाएं सना वह करता रहता है ॥ २१॥ शिस्नेन्द्रिय से सुरत-भोग, गुदेन्द्रिय संमलोत्सर्ग और मन से सब की अच्छी तरह कल्पना किया करता है॥ २२॥ इस प्रकार के अनेक व्यापार वह अकेला ही तीनों लोक में किया करता है। उसकी बढ़ाई कौन कर सकता है ? ॥ २३ ॥ उसके बिना और दूसरा ऐसा कौन है जो उसकी महिमा गा सके ? प्रात्मा का सा व्यापार और विस्तार न हुआ है, न होगा ॥ २४ ॥ चौदा विद्या. चौसठ कला, चतुरता की नाना कला, चेद, शास्त्र, पुराण और अन्तःकरण उसके बिना कहां हैं ? ॥ २५॥ इस लोक का प्राचार और परलोक का सारासार-विचार, दोनों लोकों का निर्धार, आत्मा ही करता ॥ २६ ॥ नाना मत, नाना संवाद-विवाद, नाना निश्चय और भेदाभेद श्रात्मा ही करता है ।। २७ ॥ मुख्य तत्व फैला हुआ है, उसने सब पदार्थों को रूप दिया है-श्रात्मा के योग से सब कुछ सार्थक हुया है ॥ २८ ॥ लिखना, पढ़ना, याद करना, पूछना, बताना, अर्थ करना, गाना, बजाना, नाचना श्रात्मा ही से होता है ॥२६॥ वह नाना सुखों से श्रान- न्दित होता है, नाना दुःखों से दुःखी होता है और नाना प्रकार से देह धरता है, और त्याग करता है ॥ ३०॥ वह अकेला ही नाना देह धरता है, अकेला ही नाना प्रकार से नटता है । नट-नाट्य, कला-कौशल उसके विना नहीं हो सकते ॥ ३१ ॥ वह अकेला ही बहुरूपी हो जाता है। बहुत प्रकार से महान् उद्योगी और नाना प्रकार से महाप्रतापी और डरपोक भी वही बनता है ॥ ३२ ॥ वह अकेला ही कैसा विस्तृत हो गया है ! वह बहुत प्रकार से तमाशा देखता है और देखो न, विना दंपति के ही वह कैसा फैल गया है ॥ ३३ ॥ स्त्रियों को पुरुष चाहिए, पुरुष को स्त्री चाहिए-ऐसा होने से परस्पर में मन- चाहा संतोप होता है ॥ ३४ ॥ स्थूल (पदार्थ भेद) का मूल (कारण) लिंग (स्त्रीलिंग-पुल्लिंगादि ) है और लिंग में यह सब व्यवहार है । इसी प्रकार जगत् प्रत्यक्ष चल रहा है । ३५ ॥ लिंगभेद के अनुसार पुरुषों