पृष्ठ:दासबोध.pdf/४९६

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समास ८] आत्माराम-निरूपण। तियों में भरा हुआ है ॥६॥ आत्मा ही के योग ले सब चलते-बोलते और व्यवहार करते हैं, अवतार उसीसे होते हैं और ब्रह्मादि देव भी उसीके योग से होते जाते हैं ॥ ७॥ उसे नादरूप, ज्योतिरूप, साक्षरूप, सत्तारूप, चैतन्यरूप, सस्वरूप और दृष्यारूप जानना चाहिए ॥८॥ वह नरोत्तम, चारोत्तम, पुरुषोत्तम, रघोत्तम, सर्वोत्तम, उत्तमोत्तम और चैलोक्यवासी है ॥ ६॥ नाना प्रकार की खटपटें और चटपटें, नाना प्रकार की लटपटे और झटपटें आत्मा ही के योग से होती रहती हैं। श्रात्मा यदि न हो तो चारो ओर सव सपाट हो जाय ॥१०॥ आत्मा के विना शरीर व्यर्थ है, आत्मा बिना शरीर बिचारा मृत हो जायगा और यात्मा विना शरीर को प्रत्यक्ष प्रेत ही समझिये ॥११॥ यह बात श्रात्मज्ञानी मन में समझता है-वह मनुप्यमात्र में आत्मा की व्यापकता देखता है । श्रात्मा विना भुवन और त्रिभुवन सब उजाड़ हैं ॥ १२ ॥ (श्रात्मा ही के योग से) पुरुप परम सुन्दर और चतुर बन कर सब सार- असार जानता है । आत्मा विना इहलोक और परलोक दोनों में अंध- कार समझो ॥ १३॥ सब प्रकार से सिद्ध, सावधान, नाना भेद, नाना वेध, नाना खेद और श्रानन्द, सब एक उल आत्मा ही से होते हैं ॥१४॥ रंक हो, चाहे ब्रह्मादि देव हाँ, सव का चलानेवाला वह एक ही है। नित्यानित्य का विवेक सब को करना चाहिए ॥१५॥ चाहे जैसी पद्मिनी स्त्री हो, मनुष्य उस पर तभी तक प्रीति रखता है जब तक उसमें आत्मा है। आत्मा के चले जाने पर, फिर शरीर में तेज कहां रहता है ? श्रात्मा के साथ ही शरीर-सौन्दर्य भी चला जाता ॥ १६॥ श्रात्मा न दिखता है, न भासता है, वाहर से उसका अनुमान भी नहीं कर सकते । मन की नाना कल्पनाएं आत्मा ही के थोग से उठती हैं ॥ १७॥ आत्मा शरीर में रहता है, वह सारे ब्रह्मांड का पूर्ण विवरण करता है । नाना प्रकार की वासनाएं और भावनाएं कहां तक बतलाई जांय ? ॥ १८॥ मन की अनंत वृत्तियां हैं, अनंत पाणी अनंत प्रकार की कल्पनाएं किया करते हैं। उनके अन्तःकरण का कहां तक वर्णन करूं? ॥ १६॥ अनन्त प्रकार के राजनैतिक दाँव पेंच करना, कुबुद्धि या सुबुद्धि से विवरण करना और मालूम न होने देना, या प्राणिमात्र को भुलाना आत्मा ही के योग से होता है ॥ २० ॥ एक दूसरे को ताकते रहते हैं, एक दूसरे के लिए मरते हैं, छिपते हैं। चारो ओर शत्रुता की स्थिति और गति वरत रही है ॥ २१ ॥ पृथ्वी में परस्पर एक दूसरे को फँसाते हैं और कितने ही भसा आपस में उपकार भी करते हैं ॥ २२ ॥ प्रात्मा एक है; पर भेद