पृष्ठ:दासबोध.pdf/५०

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ग्रन्थ का महत्त्व और उसकी सर्व-नियता । ३ ऐहिक और पारमार्थिक कर्तव्यों की संगति जैसी इस ग्रन्थ में मिलाई गई है वैसी शायद ही और किसी अन्य में होगी। इस ग्रन्थ में यह स्पष्ट रीति से बताया गया है कि केवल किसी एक व्यक्ति का अपने घर-द्वार, कामधन्धा, लड़केवालों के सम्बन्ध का कर्तव्य ही ऐहिक कर्तव्य नहीं है; किन्तु सारे जनसमाज के ऐहिक मुख-अपने देश- भाइयों के सांसारिक मुन्- के लिए यत्न करने में ही, अर्थात् परोपकार करने में ही, मनुष्यजन्म की सार्थकता है । अन्ध-निर्माण होते समय अनेक भावुक स्त्री-पुरुपों ने इसे मुना । इसके सम्पूर्ण होते ही अनेक हस्तलिखित प्रतियाँ सारे महाराष्ट्र में फैल गई । उसी समय, लेगों के दृष्टि के सामने इस ग्रन्थ के पहुँचते ही, अनेक लोग इसके विषय में नाना प्रकार के तर्क करने लगे। कोई कहने लगे कि इसमें त्रिकाण्ड धर्म का निरूपण है; कोई कहने लगे कि यह केवल व्यवहार-नीति का ग्रन्थ है । यद्य.प यह कथन पृथक् पृथक् रूप से सत्य नहीं है; तथापि सचमुच समष्टिरूप से---सब मिलाकर-सत्य' अवश्य है। इस ग्रन्थ में ज्ञान, कर्म, भक्ति और व्यवहार का निरूपण है । उस समय जो वेदान्ती थे उन्हें इसमें केवल ज्ञान-विबेक हो देख पड़ा; जो कर्मम.गी थे उन्हें केवल कर्ममार्ग का प्रतिपादन मिला; जो भक्त थे उन्हें भक्ति का निरूपण प्राप्त हुआ; और जिनकी दृष्टि केवल व्यवहार ही की ओर लगी हुई थी. उन्होंने सिर्फ व्यवहार-नीति ही पाई । इस प्रकार जैसी जिसकी दृष्टि श्री-जैसा जिसका भाव था—वैसा ही उसको यह ग्रन्थ प्रतीत हुआ । ठीक यही हाल इस समय भी श्रीसमर्थ रामदासखामी और उनके ग्रन्यों के विषय में हो रहा है । जिस प्रकार प्राचीन पद्धति के भावुक जनों को श्रीसमर्थ "पूजनीय हैं और उनका दासबोध प्रिय है उसी तरह आधुनिक विद्वानों की दृष्टि में भी श्रीरामदासस्वामी एक अली- किक पुरुष हैं और उनका ग्रन्थ बहुत आदरणीय हैं। परन्तु आजकल कुछ लोग अपने अपने स्वभाव और विचारों के अनुसार श्रीसमर्थ और उनके ग्रन्थ को केबल व्यावहारिक- राजनैतिक-सिद्ध करने का यन्न कर रहे हैं। यह उनकी भूल है । दासबोध एकदेशीय ग्रन्थ नहीं है। यह अन्य किसी विशिष्ट काल या देश ही के लिए नहीं बनाया गया है। इसके तात्त्विक सिद्धान्त सदा, सव काल, सव स्थानों में एक ही से लागू हैं। हाँ, यह वात सच है कि जिस समय यह ग्रन्थ बना उस समय महाराष्ट्रीय समाज विपन्नावस्था में था । इसलिए उस देश की स्थिति को लक्ष्य करके महाराष्ट्रियों को उपदेश दिया गया है ! परन्तु यथार्थ में यह ग्रन्थ सर्वदेशीय और सर्वकालिक महत्त्व का है। जो काम इस ग्रन्थ ने प्रथम कर दिखाया है वही काम वह भविष्य में भी कर दिखा सकता है। जिस प्रकार धर्म की ग्लानि होने पर ईश्वर का अवतार होता ही है उसी प्रकार समाज की निकृष्ट दशा आने पर समाज को उवारने का काम इस ग्रन्थ में अथित सिद्धान्तों ही का है। यह अन्य उस समय मार्गप्रदर्शक हो सकता है। इस ग्रन्थ की महिमा कहां तक लिखें ? यह अन्य मराठी मापा में एक अपूर्व रत्न है । मोरोपन्त और वामन पण्डित के समान चड़े बड़े कवि इसकी प्रशंसा करते करते थक गये । हम किस गिनती में हैं ?