पृष्ठ:दासबोध.pdf/५१०

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समास ५] भाजपा-निरूपण। उद्भिज प्रादि योनियां-जितने प्राणी हैं; बिना श्वासोच्छास के वे सब कैसे जी सकते हैं ? ॥ १२ ॥ इस प्रकार की यह अजपा सत्र के पास है; पर शाता पुरुप को मालूम हो जाती है; (अज्ञान को नहीं मालूम होती) सहज-लर्गिक-को छोड़ कर बनावटी बात में न पड़ना चाहिए ॥ १३ ॥ सहज (नैसर्गिक ) देव बना ही रहता है-वह अविनाशी है-बनावटी देव (मूर्ति इत्यादि ) फूटता है, नाश होता है, इस लिए ऐसा कौन है जो नाशवंत देव पर विश्वास करे ? ॥ १४ ॥ जगदान्तर-(जगत् का अंत- रात्माराम)-के दर्शन से स्वयं सहज ही अखंड ध्यान लग जाता है-सारे लोग उसी आत्माराम की इच्छा से वर्तते हैं ॥ १५ ॥ श्रआत्माराम को जिस तरह समाधान होता है वैसा ही उसको भोजन मिलता है; छोड़ा हुआ, नाश हुशा, आदि सब उसीको समर्पण हो जाता है ॥ १६ ॥ अग्नि देवता उदर में बसते हैं, उन्हें भी प्राणी अवदान देते हैं-इस प्रकार सारे प्राणी आत्माराम की आशा में चलते हैं ॥ १७ ॥ इस प्रकार परमात्मा का जप, ध्यान, स्तुति, स्तवन, श्रादि स्वाभाविक ही हो रहा है और वह उन्हें स्वीकार भी कर रहा है (पर यह बात समझना चाहिए ) ॥ १८ ॥ इसी नैसर्गिक वात को समझने के लिए नाना प्रकार के हठयोग किये जाते हैं; पर तोभी यह वात एकाएक नहीं समझ पड़ती ॥ १६ ॥ गड़ा हुश्रा द्रक्ष्य-भूल जाने पर दरिद्र आता है; कभी कभी तो ऐसा होता है कि, नीचे लक्ष्मी है और पुरुष ऊपर वर्तता है, पर बिचारा प्राणी क्या करे ? उसे मालूम ही नहीं है ! ॥ २०॥ तहखाने में अनंत द्रव्य रहता है, दीवाल में द्रव्य रखा रहता है और खंभों में या मयालों में द्रव्य रखा रहता है और आप उसीके बीच में निवास करता है ! ॥ २१ ॥ इस प्रकार लक्ष्मी के बीच मेंअभागी खेलता रहता है; परन्तु उसका दरिद्र और भी बढ़ता जाता है! उस परमानन्द परमपुरुष का यह अचरज तो देखिये ! ॥२२॥ एक बैठे देखते हैं, एक खाते हैं-यह विवेक की गति है ! यही हाल प्रवृत्ति और निवृत्ति का भी है ॥ २३ ॥ जब अंतःकरण में नारायण वसते हैं तब लक्ष्मी के लिए क्या कमी है? जिसकी लक्ष्मी है. उसको-उस लक्ष्मीधर ( परमात्मा) को-खूब मजबूती के साथ पकड़ना चाहिए ॥ २४॥