पृष्ठ:दासबोध.pdf/५११

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दासबोध । [ दशक १७ छठवाँ समास-देही और देह । ॥ श्रीराम ॥ देही (आत्मा) देह में रहता है; नाना सुख-दुःखों का भोग करता है और अन्त में एकाएक शरीर छोड़ जाता हैं ॥१॥ तरुणाई में, शरीर होने के कारण, प्राणी नाना सुख-भोग करता है और बुढ़ापे में अशक्त होने पर दुख-भोग करता है ॥२॥ चाहता तो है कि, न मरूं; परन्तु अन्त में हाथ-पैर फटफटा कर प्राण छोड़ता है और वृद्धपन में नाना कठिन दुख . सहता है ॥ ३॥ देह आत्मा की संगति से कुछ थोड़ा सुख भोगते हैं और देहान्तकाल में तड़फड़ा-तड़फड़ा कर चले जाते हैं ॥४॥ ऐसा आत्मा दुःखदायक है। संसार में एक -दूसरे के प्राण ले लेते हैं, और अंत में कोई मतलब नहीं निकलता ॥ ५॥ इस प्रकार यह दो दिन का भ्रम है, उसे लोग परब्रह्म कहते हैं-नाना दुःखों का गड़बड़ इसी में है। परन्तु लोगों ने सुख मान लिया है ॥ ६ ॥ दुखी होकर तड़फड़ाने में क्या लसाधान रखा है ? कभी थोड़ा बहुत सुख यदि मिल भी गया तो तुरंत ही फिर दुःख मौजूद है ॥ ७॥ जन्म से लेकर सब दुःखों का स्मरण करना चाहिए, तब सब मालूम हो जाता है-अनेक दुःख भरे पड़े हैं; कहां तक गिनती की जाय? ॥ ८ ॥ आत्माओं की.संगति का यह हाल है; नाना दुःख मिलते हैं सारे प्राणी हैरान हो जाते हैं ॥ ६ ॥ जन्मभर में कुछ आनन्द रहता है तो कुछ खेद रहता है। साथ ही साथ नाना प्रकार की विरुद्धता उत्पन्न होकर अनेक दुःख प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥ निद्राकाल में खटमल और मच्छड़ आदि नाना प्रकार से सताते हैं और यदि उनका कोई उपाय किया जाय तो उन्हें दुःख होता है ॥११॥ भोजनकाल में मक्खियां आती हैं, नाना पदार्थ चूहे ले जाते हैं; फिर पीछे से विल्लियाँ उनकी भी दुर्दशा. करती हैं ! ॥ १२ ॥ जुआं, किलौनी, वर, कानसेराई, आदि अनेक जन्तु एक दूसरे को कष्ट देते हैं और स्वयं कष्ट उठाते हैं ॥ १३ ॥ विच्छं, सर्प, वाघ, रीछ, मगर, भेड़िया और स्वयं मनुष्य को मनुष्य-ये सब आपस में एक दूसरे को हैं; सब दुःखी हैं; सुख संतोष किसीको नहीं है ॥ १४॥ चौरासी लाख जीव-योनियां, सब एक दूसरे का भक्षण करती हैं-नाना पीड़ा और दुःख हैं-कहां तक बतलावें? ॥ १५ ॥ ऐसी अन्तरात्मा की करनी है। इस - धरती पर नाना जीव भरे पड़े हैं और एक दूसरे को परस्पर संहार करते दुःख देते.