पृष्ठ:दासबोध.pdf/५१२

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समास ६] देही और देह। ४३३ हैं ॥ १६ ॥ सब सदा-सर्वदा रोते हैं, तड़फड़ाते हैं, बिलबिला बिलविला कर प्राण छोड़ते हैं-ऐसे आत्मा को मूर्ख प्राणी परब्रह्म कहते हैं ॥ १७ ॥ परब्रह्म जा नहीं सकता: किसीको दुःख नहीं दे सकता; परनल में स्तुति और निन्दा, दो में से कुछ नहीं है ॥ १८ ॥ चाहे जितनी गालियां दो वे सब अन्तरात्मा को लगती है | विचार करने से सन यायातथ्य प्रत्यय में आजाता है ॥१६॥ अनेक प्रकार की गालियां हैं; कहां तक वतलाई जायें ? ॥ २०॥ पर वे परब्रह्म में लग नहीं सकती; वहां कल्पना ही नहीं चलती। असम्बद्ध ज्ञान किसीको मान्य नहीं होता ॥ २१ ॥ सृष्टि में अनंत जीव हैं। सब के पास वैभव कहां से आया? इस कारण ईश्वर ने योग्यता के अनुसार वैभव बाँट दिया है ॥ २२ ॥ सर्वसाधारण लोग तो बहुत है; परन्तु उनसे उत्तम उत्तम वात भाग्यवान् पुरुप हो पाते हैं ॥ २३ ॥ इसी प्रकार, भोजन, पात्र, देवतार्चन और ब्रह्मज्ञान भी प्रारब्ध के अनुसार मिलता है ॥ २४ ॥ यों तो सारे लोग सुखी रहते हैं-संसार को सुखपूर्ण मान लेते हैं, परन्तु महाराजा लोग जिस वैभव का भोग करते हैं वह अभागी पुरुप को कैसे मिल सकता है ? ॥ २५ ॥ परन्तु अन्त में सब को नाना दुःख होते है-उस समय राजा-रंक सब समान हो जाते हैं। परन्तु जो लोग पहले से नाना सुखों का भोग करते हैं उन्हें अन्त में दुःख सहन नहीं होता! ॥ २६ ॥ कठिन दुख सहा नहीं जाता; प्राण शरीर को जलदी छोड़ते नहीं-इस प्रकार मृत्यु-दुःख सब लोगों को पीड़ित करता है ॥ २७ ॥ अनेक लोगों को अबयव-हीन होकर बर्ताव करना पड़ता है- इक प्रकार अन्तकाल में दुःखी होकर प्राणी चला जाता है ॥ २८ ॥ सारा रूप लावण्य चला जाता है; सव शारीरिक सामर्थ्य भी एक तरफ रह जाता है और यदि कोई प्रासपास न हुआ तो प्राणी और भी दुर्दशा या आपदा सह कर मरता है ॥ २६ ॥ अन्तकाल का दुख सब को एक समान होता है-ऐसा (यह आत्मा) चंचल, अवलक्षण और दुखकारी है ॥३०॥ इस पर भी लोग इसे (आत्मा को) "भोग कर भी अभोक्ता" कहते हैं- यह तो सारी फजीहत है; लोग बिना विचारे याही कह बैठते हैं! ॥३१॥ अन्तकाल बहुत कठिन है; प्राण शरीर को छोड़ते ही नहीं; और इधर आशा-तृष्णा भी खूब घेर लेती है ॥ ३२॥