पृष्ठ:दासबोध.pdf/५१४

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समास ८ पंचीकरण और देह-चतुष्टय । ४३५ से आलसी और मूर्ख बनते हैं ॥ १६ ॥ उत्तम संगति का फल सुख है और अधम संगति का फल दुःख है। श्रानन्द छोड़ कर दुख कौन लेगा? ॥ १७ ॥ वात तो स्पष्ट है, संसार में इसका अनुभव भी जाता है; क्योंकि

मनुप्यमात्र इन्हीं दो संगतियों में वर्तते हैं ॥ १८॥ एक (सत्संगति)

के योग से सारे सुख मिलते हैं और दूसरी (सत्संगति) के योग से सारे दुःख सिलते हैं । सम्पूर्ण कार्य विवेक ले करना चाहिए ॥ १६ ॥ अचानक किसी संकट में फंस जाने पर वहां से निकलने का प्रयत्न करना चाहिए । निकल आने पर परम सावधान होता है ॥ २० ॥ नाना प्रकार के दुर्जनों के संग से क्षण क्षण में मनोभंग होता है। अस्तु । अपना कुछ महत्व रख जाना चाहिए ॥ २६॥ चतुर पुरुप को, उसके थत्त के कारण, किसी बात की कमी नहीं रहती-वह सुख संतोष का भोग करता है और नाना प्रकार ले उसकी प्रशंसा होती है ॥ २२ ॥ श्रव (वात यह है कि,) लोगों में इस प्रकार (का हाल) है; (और प्रत्यक्ष) सृष्टि में वर्तता है; परन्तु जो कोई (इसे ) समझकर देखता है उससे (यह ) हो सकता है ॥ २३ ॥ यह वसुंधरा (पृथ्वी) बहुरता (अनेक रत्नों की खानि) है, जान जानकर विचार करो, क्योंकि समझने से अन्तःकरण में प्रत्यय आता है ॥ २४ ॥ दुर्वल और सम्पन्न अथवा पागल और व्युत्पन्न होना अखंड रीति से ( सृष्टि के प्रादि से ) चला-ही आया है ॥२५॥ एक भाग्य- वान् पुरुष बिगड़ते हैं तो दूसरे नये भाग्यवान्बनते हैं-इसी प्रकार विद्या और व्युत्पत्ति भी होती जाती है॥२६॥एक भरता है, एकरीता होता है;रीता फिर भरता है; भरा हुआ भी फिर कालान्तर में कुछ समय बाद-रीता होता है ॥ २७ ॥ यह संसार की गति है; संपत्ति दोपहर की छाया है और इधर उम्र भी धीरे धीरे खतम होने आई! ॥ २८ ॥ बाल, तारुण्य और वृद्धाप्य आदि की दशा स्वयं जानते ही हैं; इस लिए सब को अपने जीवन का सार्थक करना चाहिए ॥ २६ ॥ देह जैसी की जाय वैसी होती है और यत्न करने से कार्य भी सिद्ध होता है तो फिर दुखी क्यों होना चाहिए? ॥३०॥ आठवाँ समास-पंचीकरण और देह-चतुष्टय । ॥ श्रीराम ॥ नाभि से, स्फुरणरूप जिस वाणी का उत्थान होता है वह 'परा' और ध्वनिरूप पश्यंति' वाणी हृदय में रहती है ॥१॥ कंठ से नाद होता ."