पृष्ठ:दासबोध.pdf/५१९

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४४० दासबोध। [ दशक १७ एकसमान स्थिति हो जाय तो सव परीक्षा डूब जाय और वही हाल हो जाय जैसे स्वाद न जाननेवाला पुरुप सब भोजन एक में मिला लेता है! ॥ १५ ॥ मूढ़ मनुष्य गुणग्राहक नहीं हो सकता, मूर्ख को विवेक नहीं मालूम हो सकता-वे लोग विवेक और अविवेक को एक ही बतलाते हैं ॥ १६ ॥ जिसे ऊंच नीच नहीं जान पड़ता उसका अभ्यास ही डूब जाता है और विना अभ्यास के गति नहीं है ॥ १७ ॥ जो पागल या सिड़ी हो जाता है उसे सब एक ही समान जान पड़ता है। पर ऐसे मनुष्य को मूर्ख और अविवेकी जानना चाहिए ॥ १८॥ जिसका अखंड रीति से नाश होता है उसीको वे लोग अविनाशी कहते हैं-ऐसे बकवादियों को क्या कहें ? ॥ १६ ॥ ईश्वर ने नाना भेद किये हैं, भेद से सारी सृष्टि बर्तती है। जहां अंधे परीक्षक मिलते हैं वहां परीक्षा कहां की? ॥ २० ॥ और जहां. परीक्षा का अभाव है वह समुदाय ढोंगी है। जहां गुण ही नहीं है वहां गौरव कहां से आयगा? ॥ २२ ॥ जब खरा-खोटा एक ही बना दिया तव वहां विवेक कहां रहा? साधु लोग असार छोड़ कर सार ग्रहण करते हैं ॥ २२ ॥ दरिद्री पुरुष उत्तम वस्तु की परीक्षा कैसे कर सकता है ? दीक्षाहीन के पास दीक्षा कहां से आवेगी? ॥ २३ ॥ अपने ही मैलेपन से दिशा जाकर शौच करना न जानता हो तो वेदशास्त्र और पुराण उसके लिए क्या करेंगे? ॥ २४ ॥ पहले आचार की रक्षा करनी चाहिए; फिर विचार की ओर झुकना चाहिए । आचार-विचार से (भवसागर का ) पारावार पा जाते हैं ॥ २५ ॥ जो बात नेमक पुरुष को नहीं मालूम होती वह बेवकूफ को कैसे मालूम हो सकती है ? जहां दृष्टिवाले ही धोखा खाते हैं वहां अंधे किस काम के ? ॥२६॥ यदि पाप- पुण्य और स्वर्ग-नर्क सारे एक ही समान मान लिये जायँतो फिर विवेक और अविवेक की क्या आवश्यकता है ? ॥२७॥चाहे अमृत और विष को एक कहिये, परन्तु विष ग्रहण करने से प्राण जाते हैं। कुकर्म से निन्दा होती है और सत्कर्म से कीर्ति बढ़ती है ॥ २८ ॥ इहलोक और परलोक का जहां पूर्ण विचार नहीं है वहां सब निरर्थक है ॥ २६ ॥ इस लिए संतसंग करना चाहिए, सत् शास्त्र का ही श्रवण करना चाहिए और नाना प्रयत्नों से उत्तम गुणों का अभ्यास करना चाहिए ॥ ३०॥