पृष्ठ:दासबोध.pdf/५२१

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४४२ दासबोध । [ दशक १८ अब, रामकृष्णादि अवतारों की महिमा का तो पारावार ही नहीं है। उन्हींके कारण वहुत लोग उपासना में तत्पर हुए हैं ॥ १५ ॥ परन्तु इन सब देवों का मूल केवल यह अंतरात्मा है। इसीको भूमंडल में सब भोग सिलते हैं ॥ १६ ॥ यही नाना प्रकार के देवों का रूप बन बैठा है, यही । नाना शक्तिरूपों से प्रकट हुआ है और यही सारे वैभव का भोका है ॥ १७ ॥ इस अंतरात्मा का विचार करने से मालूम होता है कि, इसका विस्तार बहुत बड़ा है । अनेकौं देव और मनुष्य यही स्वयं बनता जाता है ॥ १८ ॥ यश, अपयश, अतिनिन्दा और अतिप्रशंसा-सब की भोग- प्राप्ति अंतरात्मा ही को होती है ॥१६॥ किस देह में रह कर क्या करता है, किस देह में रह कर क्या भोगता है-कौन जाने ?भोगी, त्यागी, वीतरागी सब कुछ यही एक आत्मा है॥२०प्राणी अपमे ही अभिमान में भूले रहते हैं-देहं ही की ओर देखते रहते हैं और भीतर रहते हुए भी मुख्य आत्मा को नहीं पाते ॥ २१ ॥ अरे, इस भूमंडल में ऐसा कौन है जो इस श्रात्मा की हलचल का पूरा पूरा विचार कर सके ? जब अगाध पुण्य होता है तब कहीं इसका कुछ थोड़ा अनुसंधान लगता है ॥ २२ ॥ और उस आत्मानुसन्धान के साथ ही किल्विष (पाप) जल जाते हैं, यह बात अन्तर्निष्ठ ज्ञानी लोग मनन करके देखते हैं ॥ २३ ॥ अन्तर्निष्ट होते हैं वही तरते हैं और सब अन्तर्धष्ट डूब जाते हैं, क्योंकि वे विचारे वाहर वाहर लोकाचार ही में भूले रहते हैं ॥ २४ ॥ दूसरा समास-ज्ञाता का समागम । ।। श्रीराम ॥ अनजानपन से जो होगया सो होगया; अब, नियमपूर्वक, जानपन के साथ, वर्ताव करना चाहिए ॥१॥ ज्ञाता की संगति करनी चाहिए, ज्ञाता की सेवा करनी चाहिए, और धीरे धीरे ज्ञाता की सुबुद्धि का स्वयं भी ग्रहण करना चाहिए ॥२॥ ज्ञाता के पास लिखना, पढ़ना सीखना चाहिए और सब बातें पूछनी चाहिए ॥ ३ ॥ ज्ञाता के साथ उपकार करना चाहिए, ज्ञाता के लिए अपना शरीर खर्च करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि, उसका विचार कैसा है ॥४॥ ज्ञाता की संगति में रह कर भजन करना चाहिए, उसकी संगति से कष्ट सहना चाहिए और उसीकी संगति से मनन कर करके रीमना चाहिए ॥ ५ ॥