पृष्ठ:दासबोध.pdf/५३१

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समास ८] श्रन्तदेव-निरूपण। आठवाँ समास- अन्तर्देव-निरूपण । ॥ श्रीराम || ब्रह्म निराकार और निश्चल है, अात्मा विकारी और चंचल है; पर सब लोग उसे देव कहते हैं ॥१॥ देव का पता ही नहीं लगता। एक देव का निश्चय नहीं मालूम होता। बहुत देवों में एक देव अनुमान में नहीं पाता ॥२॥ इस लिए विचार करने की आवश्यकता है, विचार ही से देव की खोज करनी चाहिए । बहुत देवों का गड़बड़ पड़ने ही न देना चाहिए ॥३॥ तीर्थक्षेत्र में देव की प्रतिमा देख कर लोग उसीके समान धातु की देवप्रतिमाएं बनाने लगे और इसी प्रकार पृथ्वी में यह चाल चल गई ॥४॥ केचल क्षेत्रदेव ही नाना प्रकार के प्रतिमादेवों का मृल है। इस भूमंडल में नाना क्षेत्रों को खोज कर देखना चाहिए ॥५॥ क्षेत्रदेव पापाण का होता है । उसका यदि विचार किया जाय तो जान पड़ता है कि उसका मूलतंतु अवतार की ओर है ॥ ६॥ अवतार लेकर- दे धारण करके देव बर्ताव करते हैं और अन्त में उनका अवतार समाप्त हो जाता है । ब्रह्मा, विष्णु और महेश उनसे भी बड़े गिने जाते हैं ॥ ७॥ परन्तु इन तीनों देवों पर जिसकी सत्ता है वह अन्तरात्मा ही है। वास्तव में कर्ता भोका प्रत्यक्ष वही है ॥ ८ ॥ अनेक युगों तक तीनों लोक का व्यापार वही एक चलाता है। यह निश्चय का विवेक चैदशास्त्र में देखना चाहिए ॥ ६ ॥ अन्तरात्मा ही चेतनारूप से, विवेकद्वारा, सारे शरीरों का व्यापार चलाता है ॥ १० ॥ वह अन्तर्देव (भीतर का देव) लोग भूल जाते हैं और दौड़ कर तीर्थों को जाते हैं इस प्रकार विचारे प्राणी, देव को न पहचान कर, कष्ट उठाते हैं ! ॥११॥ फिर मन में विचा- रते हैं कि, जहां देखो वहीं ( तीर्थों में ) पानी और पत्थर हैं; व्यर्थ बन बन घूमते से क्या होता है ? ॥ १२ ॥ ऐसा विचार जिसको मालूम हो जाता है वह सत्संग करता है। सत्संग से बहुत लोगों को देव मिल चुका है ॥ १३ ॥ ऐसी ये विवेक की वात विवेकी पुरुष निश्चय करके जान सकते हैं। अविवेकी लोग भ्रम में भूले रहते हैं, उन्हें ऐसी बातें मालूम नहीं होतीं ॥ १४ ॥ भीतर (अन्तःकरण में) प्रवेश करनेवाला ही पुरुष भीतर का हाल जान सकता है, और केवल वाहर बाहर का स्वरूप देखनेवाला कुछ नहीं जान सकता, इस लिए विवेकी और चतुर मनुष्य अन्तःकरण की खोज करते हैं ॥ १५ ॥ विवेक के बिना जो भक्ति है