पृष्ठ:दासबोध.pdf/५३२

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दासबोध। [ दशक १८ . उसका होना न होने के बराबर है । कहते भी हैं कि, प्रतिमादेव मूर्ख के लिए है ॥ १६ ॥ विचार करते हुए और समझते हुए जो अपना जीवन व्यतीत करता है वही उत्तम विवेकी है और वही तत्वों को (स्थूल, दृश्य ) छोड़ कर निरंजन-परब्रह्म-को प्राप्त करता है ॥ १७ ॥ जितना कुछ आकार को प्राप्त होता है वह सब नाश हो जाता है। वास्तव में जो सब गड़बड़ से अलग है उसे परब्रह्म जानना चाहिए ॥ १८ ॥ देव चंचल है और ब्रह्म निश्चल है, परब्रह्म में भ्रम नहीं है, प्रत्यय ज्ञान (अनुभवजन्य ज्ञान ) से भ्रम दूर हो जाता है ॥ १६ ॥ प्रतीति विना जो कुछ किया जाता है वह सब व्यर्थ जाता है और प्राणी कष्ट ही कष्ट में रह कर, कर्म-कचाटे में पड़ कर, मर जाते हैं ॥ २०॥ यदि कर्म से अलग नहीं होना है (यदि उसके फल ही इच्छा करना है) तो फिर ईश्वर का भजत करना ही क्यों चाहिए? यह वात विवेकी पुरुप स्वभाव से ही जानते हैं-मूर्ख नहीं जानते ॥ २१ ॥ कुछ विचार करने पर मालूम हो जाता है कि, जगत् के अन्तर (भीतर ) में परमेश्वर । सगुण से ही, निश्चय करके, निर्गुण मिलता है ॥ २२ ॥ सगुण का विचार करते हुए, उसके मूल तक जाने पर, सहज ही निर्गुण मिल जाता है और संगत्याग से स्वयं ब्रह्मरूप होकर प्राणी मुक्त हो जाता है ॥ २३ ॥ परमेश्वर का अनुसन्धान लगाने से पाचन होते हैं । मुख्य ज्ञान से ही 'विज्ञान'-मोक्ष-मिलता है ॥ २४ ॥ इन विवेक की बातों का सुचित्त अन्तःकरण से विचार करना चाहिए। नित्य-अनित्य-विवेक के श्रवण से जगत् का उद्धार होता है ॥ २५ ॥ नववाँ समास-निद्रा-निरूपण । : ॥ श्रीराम ॥ आदिपुरुप की वन्दना करके निद्राविलास (सुखनींद) का वर्णन करता । गहरी निद्रा श्रा जाने पर जा नहीं सकती ॥१॥ जव' निद्रा शरीर में व्याप्त होती है तब आलस, जमुहाई और ऐंड़ाई आती है। उनके कारण फिर बैठ नहीं सकते ॥२॥ जल्दी जल्दी जमुहाइयां आती हैं, उन पर लोग चटचट चुटकियां बजाते हैं और झुक झुक कर खूब ऊंघते हैं ॥ ३॥ कोई आखें मूंदते हैं, किसीकी आखें लगती हैं और कोई चौंक कर चारो ओर देखते हैं ॥ ४॥ कोई उलट कर गिर