पृष्ठ:दासबोध.pdf/५४२

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४६४ दासबोध । [ दशक १९ वही उसे सदा अच्छी लगती है ॥ १४ ॥ परोपकार का तो वह नाम भी नहीं जानता; अनेकों का संहार करता है, वह सब प्रकार से निरंकुश पापी, अनर्थी और सूर्ख होता है ॥ १५ ॥ शब्द सँभाल कर नहीं बोलता, रोकने से मानता नहीं, और उसका वोलना किसीको पसन्द नहीं आता ॥ १६ ॥ किसीका विश्वास नहीं है, किसीसे मैत्री नहीं है, विद्या- वैभव कुछ भी नहीं है, योही अकड़ता है ! ॥ १७॥ यदि कोई उससे कहता है कि, "जब बहुत लोगों का मन प्रसन्न रखा जाता है तब कहीं सौभाग्य प्राप्त होता है " तो ऐसी विवेक की बातें वह सुनता नहीं ॥ १८ ॥ स्वयं अपने को मालूम नहीं है; सिखाने से सुनता नहीं है-ऐसे पुरुप के लिए नाना उपाय क्या कर सकते हैं ? ॥ १६ ॥ बहुत कुछ सोचता है; मनोराज्य करता है; परन्तु प्राप्त कुछ भी नहीं होता-इस प्रकार वह सदा संदेह में पड़ा रहता है ॥ २० ॥ वह पुण्यमार्ग छोड़ देता है, फिर उसके पाप दूर हों तो किस तरह ? निश्चय कुछ भी नहीं करता; लन्देह में पड़े पड़े सत्यानाश करता है ॥ २१ ॥ अच्छी तरह कोई बात जानता नहीं है; पर तो भी सभा में बिना बोले नहीं रहा जाता! सभा में बोलने पर, कुछ न जानने के कारण, वह लोगों के सन्मुख वेवकूफ और लबाड़ बन बैठता है ॥ २२ ॥ जिसका कुछ निश्चय बहुत लोगों को मालूम हो जाता है वही मनुष्य संसार में मान्य होता है ॥ २३ ॥ बिना कष्ट सहे कीर्ति कहां मिल सकती है ? मुफ्त में मान नहीं मिलता। अवलक्षणों से तो चारो ओर शिकायत होती है ॥ २४ ॥ जो भले की संगति नहीं करता और अपने को चतुर नहीं बनाता वह अपना श्राप ही वैरी है- स्वहित नहीं जानता ॥ २५ ॥ लोगों के साथ जो भलाई की जाती है, उसका बदला तुरंत ही अपने को मिलता है। यह बात उस अभागी के जी में नहीं आती ॥ २६ ॥ उत्तम गुण न होना अभागीपन का लक्षण है। जो बहुतों को पसन्द नहीं है वह स्वाभाविक ही अवलक्षण है ॥ २७ ॥ कोई भी काम हो, किये बिना नहीं होता। जो निकम्मा होता है वह दुःखप्रवाह में बहते ही चला जाता है ॥ २८ ॥ जो पुरुष बहुतों को मान्य नहीं है उसके बराबर पातकी दूसरा नहीं है। ऐसा पुरुष सब जगह निराश्रय रह कर दीनरूप रहता है ॥ २६ ॥ इस कारण अवगुण त्यागने चाहिए, उत्तम गुण समझ कर ग्रहण करने चाहिए। ऐसा करने से सब वाते अपने अनुकूल होती हैं ॥ ३० ॥