पृष्ठ:दासबोध.pdf/५४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समास:] शुद्धिबाद। ॥ २ ॥ जो स्वयं निस्पृहता का भाचरण नहीं करता उसका कहना भी कोई नहीं मानता। बात तो यह है कि, इस जगद्रूप परमात्मा को राजी रखना कठिन है ।। ३ ॥ कोई जबरदस्ती मंत्र देकर गुरु वनना चाहते है; कोई किसीको मध्यस्थ नियत करके गुरु बनने का प्रयत्न करते हैं; पर ऐसे मनुप्य, लालच के कारण, स्वाभाविक ही लोगों की दृष्टि से उतर जाते हैं ॥ ४ ॥ जिसे विवेक बतलाना है वही यदि प्रतिकूल हुआ तो फिर आगे का 'कारवार' कैसे बन सकता है ? ॥ ५॥ कभी कभी क्या देखा गया है कि, भाई का गुरु भाई ही बन बैठता है; पर इससे आगे चल कर बड़ी बुराई पैदा हो जाती है। अतएच पहचान के लोगों में महन्तपन न फैलाना चाहिए ॥ ॥ ऐसा करते हुए पहले तो अच्छा लगता है। पर पीछे ले गड़बड़ मचता है। विवेकी पुरुष ऐसी वात को कैसे पसन्द कर सकते हैं? हां, अविचारी लोग भले ही जमा हो जायँ! ॥ ७ ॥ पति शिष्य और पत्नी गुरु-यह भी एक विचित्र ही बात है ! नाना प्रकार के भ्रष्टाकारों में यह भी एक है ॥८॥ विचेक, प्रकट करके, लोगों से बतलाता नहीं-गुप्त रखता है और मुख्य निश्चय अनुमान में आने ही नहीं देता ॥ ६॥ अभिमान में आ जाता है, कोई विवेक बतलाता है तो उसे ग्रहण नहीं करता । ऐसे पुरुष दूरदर्शी साधु नहीं हो सकते ॥ १० ॥ मेरी राय तो यह है कि, किसीसे कुछ भी न माँगते हुए भगवजन बढ़ाना चाहिए और विवेक-वल से लोगों को भजन में लगाना चाहिए ॥ ११ ॥ विवेक के साथ, दूसरे का मन रख कर, अपनी इच्छा, स्वधर्म और लोकाचार के अनुसार (अर्थात् इन तीनों को सम्हालकर) काम करना बहुत कठिन है ॥ १२॥ यदि स्वयं किसी म्लेच्छ को गुरु करके चमारों को शिप्य बनाते फिरे तो इससे समुदाय भ्रष्ट हो जायगा ॥ १३ ॥ अतएव ऐसा न करके ब्राह्मण- मंडलियां एकत्र करनी चाहिए, भक्तमंडलियों का मान करना चाहिए १४॥ जो बात उत्कट और भव्य हो वहीं ग्रहण करना चाहिए, सभी संशयित बातों का त्याग करना चाहिए और निस्पृहता से भूमंडल में विख्यात होना चाहिए ॥ १५॥ लिखना, पढ़ना, अर्थ कहना, गाना, नाचना, और पाठ करना आदि सभी वातें अच्छी होनी चाहिए ॥१६॥ दीक्षा और मैत्री अच्छी होनी चाहिए; 'राजकारण- (राजनीति-) विपयक तीक्ष्ण बुद्धि भी चाहिए, पर अपने को नाना प्रकार से अलिप्त रखना चाहिए ॥ १७ ॥ हरिकथा से सदा सर्वदा प्रेम रहना चाहिए ताकि सम्पूर्ण लोगों को भी नामस्मरण से प्रीति हो । सूर्य की तरह