पृष्ठ:दासबोध.pdf/५४९

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समारा ] प्रयत्न-वादा १७१ का व्याख्यान करना चाहिए । किसी विषय में न्यूनता न होने देना चाहिए ॥ १ ॥ उपदेशक यदि भूल जाता है तो यह बात उपदेशक ही जान सकता है, अन्य अज्ञान लोग टुकुर-टुकुर देखते रह जाते हैं ॥ २ ॥ किसी बात का समाधान करने में यदि वक्ता को देर लग जाती है तो श्रोता लोगों में उसका महत्व नहीं रहता ॥३॥ व्यर्थ बहुत न बक कर थोड़े ही में समाधान कर देना चाहिए। यदि श्रोताओं पर क्रोध किया हो तो फिर उनका मन भी समझा देना चाहिए: सम्पूर्ण मनुष्यों का मन हरण कर लेना चाहिए ॥ ४ ॥ जिसमें सहनशीलता नहीं होती, व्यर्थ ऋोथ दिखलाता है, उसको तामस वृत्ति लोगों में प्रकट हो जाती है और श्रोता लोगों का प्रेम उस पर नहीं रहता ॥ ५॥ किन किन लोगों को राजी रखा और किनका किनका मनोभंग किया, इसकी क्षण क्षण पर परीक्षा करते रहना चाहिए ॥ ॥ शिप्य तो विकल्प के कारण कुमार्ग से जाता है और गुरु भी लालच से उसके पीछे पीछे चलता है- यह सारा विकल्प ही समझिये ॥ ७ ॥ जो श्राशावद्ध और क्रियाहीन । है, जिसमें चातुर्य का लक्षण नहीं है, ऐसे महन्त की महंती की बड़ी बुर्दशा होती है ॥ ८ ॥ ऐले गोस्वामियों का वजन ( गौरव ) नहीं रहता, वे ठौर टौर में कष्टी होते हैं । इस प्रकार जब वेही स्वयं कष्ट उठाते है नत्र उनके साथ के लोग सुख कहां से पावें गे? ॥ ॥ लोगों को राजी रख कर सत्र कार्य इस रीति से करना चाहिए कि, जिससे चारो ओर कोति फैले और सब लोगों में उत्कंठा पैदा हो॥ १०॥ परकीय लोगों में रहते हुए, अलिप्त रह कर, समुदाय पर दृष्टि रखना चाहिए और किसी से कुछ न माँगना चाहिए--पूर्ण निस्पृहता चाहिए ॥ ११ ॥ जिस ओर जगत् ( वहुमत) होता है उसी ओर जगन्नायक (परमेश्वर ) होता है। यह विवेक मालूम होना चाहिए । विवेकी पुरुप रात दिन अनेक लोगों को सँभालते रहते है ॥ १२॥ यह कैसे हो सकता है कि, स्वयं केवल अच्छा हो और सब लोग खराव हों ? ॥ १३ ॥ उजाड़ 'मुल्क में क्या देखें? लोगों को छोड़ कर कहां रह ? बाहियात और मिथ्या छोड़ कर, सत्य का ग्रहण करना चाहिए ॥ १४ ॥ अतएव, जिसे लोगों में बर्ताव करना नहीं पाता उसे महंती से कुछ काम नहीं । ऐसे पुरुष को चाहिए कि, वह परत्रसाधन का उपाय श्रवण करके यौही बना रहे ! ॥ १५॥ जो स्वयं भली तरह तैरना नहीं जानता उसे दूसरे लोगों को डुबाने से क्या मतलब ? ऐसी दशा में प्रेम-प्रीति तो व्यर्थ जाती है, सारा विकल्प ही रह जाता है ॥ १६ ॥ यदि लोगों को सँभालने का सामर्थ्य