पृष्ठ:दासबोध.pdf/५५

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दासबोध की आलोचना । समास में तत्कालीन धार्मिक और सामाजिक दशा का अच्छा परिचय मिलता है। पन्द्रहवें दशक में फिर चातुर्य के लक्षण और निस्पृह-व्याप-लक्षण बतलाये हैं । यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि श्रीसमर्थ ने महन्तों और निस्पृहों का वर्णन इस ग्रन्थ में बार बार किया है। निस्पृह महन्ती ही उनकी व्यावहारिक शिक्षा का सार है; क्योंकि विना निस्पृह महन्तों के जगदुद्धार या लोककल्याण कदापि नहीं हो सकता । सोलहवै दशक में पहले वाल्मीकि, सूर्यनारायण, भूमाता और पवनदेव का स्तवन करके जल, अग्नि, आदि महाभूतों का वर्णन किया है । इन सारे व्याख्यानों में आधुनिक वैज्ञानिक या शास्त्रीय सिद्धान्तों का भी परिचय मिलता है । इसके बाद उपासना की व्यापकता बतलाते हुए यह सिद्धान्त स्थापित किया है कि “ उपासनेचा मोठा आश्रयो । उपासनेवीण निराश्रयो । उदण्ड केले तरी तो जयो । प्राप्त नाहीं ॥" अर्थात् मनुष्य को ईश्वर की उपासना का बहुत बड़ा आश्रय है; विना उपासना के निराश्रित रहना होता है; निराश्रित अवस्था में चाहे जैसा प्रयत्न किया जाय, जय-लाभ नहीं होता । सत्रहवें दशक में शिव-शक्ति, अजपामंत्र, जगजीवन आदि नाना विषयों का वर्णन किया है । अठारहवें दशक में चौथी वार सर्वज्ञसंग और निस्पृह' के सिखापन का वर्णन किया है । इसके बाद अभागी पुरुष और उत्तम पुरुष के लक्षण तथा जनस्वभाव बतला कर निद्रा का हास्य कारक वर्णन किया है। उन्नीसवें दशक के प्रारम्भ में लेखन-क्रिया, भाग्यवान् और अभागी के लक्षण, बुद्धिवाद और यत्न का निरूपण किया है । अन्त में उपाधि के लक्षण बतला कर 'राजकारण' का दुवारा निरूपण किया है। बीस दशक में आत्मा, देह-क्षेत्र, सूक्ष्मनाम, पूर्णापूर्ण आदि आध्यात्मिक विषयों की ही चची की है । अन्त में विमल ब्रह्म का निरूपण करके अद्वैत सिद्धान्त स्थापित किया है। प्रन्थ- समाप्ति के समय श्रीसमर्थ कहते हैं:- " भत्काचेनि साभिमाने । कृपा केली दाशरथीने । समर्थकृपेची वचनै । तो हा.दासबोध ॥" अर्थात् भक्तों का अभिमान रख कर श्रीदाशरथी रामचन्द्रजी ने मुझ पर कृपा की; यह ग्रन्थ कुछ मैंने नहीं बनाया है; इसमें समर्थ श्रीरामचन्द्रजी की कृपा के वचन हैं-वहीं बचन एकत्र होकर इस ( दासबोध ) अन्य के रूप में देख पड़ते हैं। यहाँ तक इस ग्रन्थ में वर्णित सव विषयों का संक्षेप में उल्लेख किया गया। अब इस प्रन्थ के मुख्य मुख्य सिद्धान्तों की कुछ विस्तृत आलोचना की जायगी जिससे पाठकों को यह बात भली भाँति मालूम हो जायगी कि श्रीसमर्थ रामदासखामी ने लोकोद्धार के लिए किस प्रकार की शिक्षा दी है। ५--ज्ञान, विज्ञान और बहुधा ज्ञान । . . मोक्ष के लिए ज्ञान चाहिए । अब यह देखना चाहिए कि ज्ञान क्या है। इस अखिल में संसार में : नित्य और.'शाश्वत ' वस्तु एक है । वह शुद्ध या विमल ज्ञान है । इस ग्रन्थ