पृष्ठ:दासबोध.pdf/५५०

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४७२ दासबोध। [दशक १९ हो तो महंत वन कर प्रगट होना चाहिए; अन्यथा चुप ही रहना अच्छा प्रगट होकर और फिर कार्य विगाड़ना अच्छा नहीं ॥ १७ ॥ मन्द मन्द चलनेवाला चपल चालाक को कैसे सम्हाल सकता है ? सोचिये तो सही कि, अरवी (घोड़ा) फिरानेवाला कैसा होना चाहिए ? (चालाक या मन्द ? ) ॥ १८ ॥ ये काम बड़े अटपट हैं ! ये तीक्ष्ण बुद्धि के रहस्य भोले-भाले भाव से कैसे जाने जा सकते हैं ? ॥ १६॥ यदि खेत करके रखाया न जाय, व्यापार करके भ्रमण न किया जाय, और लोग इकट्टा करके उन्हें सम्हाल न सके ( तो काम कैसे चल सकता है ? ) ॥ २० ॥ जव 'दिन दूना रात चौगुना' उत्साह बढ़ता है तभी परमार्थ प्राप्त होता है । घिस घिस मचाने से सारा समुदाय बिगड़ जाता है ॥ २१ ॥ अपनी बात यदि लोगों को पसन्द नहीं है, और लोगों की बात यदि अपने को पसन्द नहीं है, सारा विकल्प ही समझो। ऐसी दशा में समाधान का ठिकाना कहाँ ? ॥२२॥जहां सत्यानाशी दीक्षा देनेवाले (गुरु) और ठग लोग (शिष्य ) जमा होते हैं वहां विवेक कैसे रह सकता है ? और जहां अविवेक का राज्य हो वहां रहना अच्छा नहीं ॥ २३ ॥ कई लोग बहुत दिन श्रम करते हैं; पर अन्त में सब व्यर्थ जाता है-यदि अपने से हो ही नहीं सकता तो फिर उपाधि बढ़ाना ही क्यों चाहिए? ॥ २४ ॥ नियस के साथ यदि चल सका तव तो वह उद्योग टोक है। नहीं तो सारा संताप ही है। क्षण क्षण में विक्षेप आते हैं, कहां तक बतलाये जायँ ? ॥ २५ ॥ मूर्ख लोग संसार में मूर्खता से भटकते हैं और ज्ञाता लोग भी वाद-विवाद करके कलह मचाते हैं; परन्तु ये दोनों निन्दनीय हैं !॥ २६ ॥ ये लोग 'कारवार' तो सम्हाल सकते नहीं और इधर चुप बैठे भी नहीं रहा जाता । इसमें दूसरों का क्या दोष है ? ॥ २७ ॥ सच तो यह है कि, नष्ट उपाधि को छोड़ देना चाहिए; और सब जगह परिभ्रमण करते हुए अपना जीवन सार्थक करना चाहिए ॥ २८ ॥ जो परिभ्रमण भी नहीं कर सकता और दूसरे की सह भी नहीं सकता उसे विकल्प की अनेक यातनाएं भोगनी पड़ती हैं ॥ २६ ॥ अस्तु: अपनी भलाई अपने हाथ है। अपने ही मन में सोचना चाहिए और जैसा जान पड़े वैसा बर्ताव करना चाहिए ॥३०॥ ..