पृष्ठ:दासबोध.pdf/५५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दासबोध। [ दशक १९ नहीं बांधते ॥१५॥ कोई कोई मनुष्य ऐसा मूढ़ होता है कि, उसका काम ही बावले का सा होता है। ऐसा पुरुष नाना विकल्पों का जाल फैला देता है ॥ १६ ॥ वही जाल अपने से सुरझ नहीं सकता, दूसरे को कुछ भी मालूम नहीं होता । विकल्प से कल्पना ठौर और में नाचती है ॥१७॥ वे गुप्त कल्पनाएं किसे मालूम हो? कौन आकर उन्हें सम्हाले ? जो कल्पनाओं में फँसा हो उसीको अपनी बुद्धि दृढ़ करनी चाहिए ॥ १८ ॥ जो उपाधि को सम्हाल न सके उसे उपाधि बढ़ानी ही न चाहिए । चित्त सावधान करके समाधानपूर्वक रहना चाहिए ॥ १६ ॥ दौड़ दौड़ कर उपाधि लपटाता है, स्वयं कष्ट सह कर लोगों को भी कष्टी करता है। ऐसी कुसमुस की बातें काम नहीं आती ॥ २०॥ जनलसुदाय बहुत कष्टी होता है, स्वयं भी अत्यन्त नष्ट होता है । व्यर्थ के लिए क्यों यह गड़बड़ करता है ? ॥ २१ ॥ अस्तु ! उपाधि का काम ऐसा है। कुछ अच्छा है, कुछ टेढ़ा है । सब समझ कर बर्ताव करना अच्छा होता है ॥ २२ ॥ सब लोगों में भक्ति नहीं होती, अतएव इसे उन्हें जागृत करना चाहिए। परन्तु अन्त में किसी पर दोष न श्राने देना चाहिए ॥ २३ ॥ बुरा मला सन 'अन्तरात्मा करता है, निर्गुण सब से अलिप्त है। सारे गुण-अवगुण चंचल (अन्तरात्मा) में होते हैं ॥ २४ ॥ शुद्ध विश्रान्ति का स्थल एक निर्मल निश्चल ही है। वहां सारे विकार ही निर्विकार हो जाते हैं ॥ २५ ॥ वहां सारे उद्वेग नष्ट हो जाते हैं, मन को विश्रान्ति मिलती है-ऐसी दुर्लभ परब्रह्मस्थिति विवेक से प्राप्त करनी चाहिए ॥ २६ ॥ वास्तव में यह समझना चाहिए कि, हमारे तई उपाधि विल- कुल ही नहीं है-ये सब कर्मयोग से मिले हैं। इनके संयोग-वियोग से कोई हानि नहीं ॥ २७ ॥ जो उपाधि से घबड़ाता है उसे शान्त होकर बैठना चाहिए जिस बात को सँभाल न सके उसका गड़बड़ क्यों करना चाहिए ? ॥ २८ ॥ कुछ गड़बड़ में और कुछ शान्ति में समय व्यतीत करते रहना चाहिए, जिससे अपने को समय और विश्रान्ति मिले ॥ २६ ॥ उपाधि कुछ सदा रहती नहीं, समाधान के समान और कुछ श्रेष्ठ नहीं, तथा नरदेह बारबार नहीं मिलती ॥३०॥ नववाँ समास-राजनीति का व्यवहार। ॥ श्रीराम ॥ जो शानी और उदास है तथा जिसे समुदाय एकत्र करने का उत्साह