पृष्ठ:दासबोध.pdf/५५६

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दासबोध [ दशक १९ और निस्पृहों को चुन चुन कर अपने पास रख लेना चाहिए ॥ १५ ॥ जितना होसके उतना स्वयं करना चाहिए और जो न हो सके वह लोगों से कराना चाहिए । परन्तु साथ ही भगवद्भजन छोड़ देना धर्म नहीं है ॥ १६ ॥ स्वयं करना चाहिए, दूसरों से कराना चाहिए; स्वयं विवरण करना चाहिए, दूसरों से विवरण कराना चाहिए और स्वयं भजनमार्ग को पकड़ना चाहिए और दूसरों को भजनमार्ग पर लाना चाहिए ॥ १७ ॥ यदि पुराने लोगों में रहते हुए जी उकता जाय तो नूतन प्रान्त को गमन करना चाहिए। जितना कुछ अपने से हो सकता हो उतना करने में आलस न करना चाहिए ॥ १८॥ देह का अभ्यास यदि छूट गया तो समझ लेना चाहिए कि, वह महंत वरवाद हो गया। नित्य नये नये लोगों को, झपाटे के साथ, चतुर वनाते रहना चाहिए ॥ १६ ॥ उपाधि में फँसना न चाहिए; उपाधि से घबड़ाना भी न चाहिए। किसी विषय में भी लापरवाही से काम नहीं चलता ॥ २० ॥ जो काम बिगड़ना होता है वह बिगड़ जाता है, लोग पागल की तरह योही देखा करते हैं । जो आलसी और हृदयशून्य है वह काम करना क्या जान सकता है? ॥२१॥ यह धक्का-धक्की का मामला है; अशक्त (निर्बल) से कसे हो सकता है? इसी लिए शक्षा (बलवान ) पुरुष को नाना प्रकार की बुद्धि और युक्ति सिखलानी चाहिए ॥ २२ ॥ जब तक अपने से उद्योग हो सके तव तक रहना चाहिए और न हो सकने पर चले जाना चाहिए । इसके बाद श्रानन्दरूप होकर चाहे जहां फिरना चाहिए ॥ २३ ॥ जो उपाधि से छूट जाता है उसकी निस्पृहता और भी दृढ़ होती है और श्रानन्दपूर्वक जिधर चाहता है, चला जाता है ॥२४॥ कीर्ति की ओर देखने से सुख नहीं और सुख की ओर देखने से कीर्ति नहीं। और किये विना कहीं भी कुछ नहीं ॥ २५ ॥ चो तो क्या रहता है? जो कुछ होना होता है वह होता ही है; हां, मनुष्य केवल अपने ऊपर दुर्वलता का दोष लाद बैठता है ॥ २६ ॥ यदि पहले ही हिम्मत हार जाय-यदि वीच ही में धैर्य छूट जाय-तो फिर इस संसार को पार कैसे हो? ॥ २७ ॥ संसार तो श्रादि ही से खराब है; उसे विचेक से अच्छा कर लेना चाहिए। परन्तु अच्छा करने से वह और भी फीका हो जाता है ॥ २८ ॥ विचार करने से ऐसी इस संसार की दशा मन में आ जाती है; परन्तु किसीको धीरज न छोड़ना चाहिए ॥२६॥ क्योंकि धीरज छोड़ने से क्या होता है? सब कुछ सहना ही पड़ता है। चतुर मनुष्य नाना प्रकार की बुद्धि और नाना मत जानता है.॥३०॥