पृष्ठ:दासबोध.pdf/५६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दासबोध। [ दशक १० परब्रह्म को छोड़ना ठीक नहीं। मुख्य निश्चय पाकर भटकना क्यों चाहिए? ॥ २४ ॥ पृथ्वी में बहुत लोग हैं। उनमें बहुत से सजन भी होते हैं। परन्तु साधु को छोड़ कर साधु को और कौन पहचान सकता है ? ॥ २५ ॥ इस लिए गृहस्थी छोड़ कर फिर साधु का खोज करना चाहिए, और धूम घूम कर साधु को प्राप्त कर लेना चाहिए ॥ २६ ॥ अनेक साधुओं से मिलना चाहिए। उन्हीं में कोई अनुभवी महंत मिल जाता है; क्योंकि, विना अनुभव के स्वहित नहीं हो सकता ॥ २७ ॥ प्रपंच हो, चाहे परमार्थ हो-अनुभव विना सन्न व्यर्थ है। जिले अनुभव-ज्ञान है वही सब से अधिक समर्थ है ॥ २८ ॥ रात दिन अर्थ का विचार करना चाहिए, जो अर्थ का विचार करता है वही समर्थ है और उसी- ले परलोक का सच्चा स्वार्थ हो सकता है ॥ २६ ॥ इस लिए देखा हुआ ही फिर देखना चाहिए और खोज किया हुआ ही फिर खोजना चाहिए। जब सब मालूम हो जायगा तब सहज ही सन्देह मिट जायगा ॥ ३०॥ चौथा समास-आत्मा का निरूपण । ॥ श्रीराम ॥ सब लोगों से प्रार्थना है कि, योंही मन उदास न करना चाहिए। अनुभवपूर्ण निरूपण को मन में रखना चाहिए ॥ १॥ यदि अनुभव को एक ओर रख कर स्वयं सनसानी ओर सगै तो फिर लारालार का विचार कैसे होगा? ॥२॥ यों तो सृष्टि की ओर देखने से गड़बड़ देख पड़ता है; पर वह राजसत्ता को बात अलग ही है ॥ ३॥ पृथ्वी में जितने शरीर हैं उतने सब भगवान् के घर हैं उन्हीं के द्वारा नाना सुख उसे प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥ उसकी महिमा किसे मालूम हो सकती है? वह कृपालु जगदीश, मातृरूप से, प्रत्यक्ष, जगत् की रक्षा करता है ॥ ५ ॥ उसकी सारी सत्ता सम्पूर्ण पृथ्वी में विभाजित है । भगवान् की कला से सृष्टि वर्तती है ॥ ६ ॥ मूल-ज्ञाता-पुरुष, अर्थात् परमात्मा, की सत्ता वास्तव में शरीर में विभाजित है-फैली हुई है-सब कला और चतुरता उसीमें रहती है ॥ ७ ॥ सब पुरों का ईश जो जगदीश है, वह जगत् व्यापक है । नाना शरीरों से रह कर वही आनन्द से सृष्टि चलाता ॥८॥ ऊपर ऊपर देखने से जान पड़ता है कि, सृष्टि की यह सारी रखता एक से नहीं चल सकती; परन्तु वह एक ही नाना देह धर कर