पृष्ठ:दासबोध.pdf/५६३

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४ श्रात्मा का निरूपण। इसे चलाता है। यह इस कार्य में ऊंच-नीच नहीं विचारता, भला- बुरा नहीं देखता । भगवान् को सिर्फ इतना ही खयाल रहता है कि, काम चलना चाहिए ॥ १० न जाने उसने अजान को रचना करके लोगों को अड़चन की है या अभ्यास में डाला है? किस लिए क्या बनाया-सो उसका उसोको मालूम है ! ॥११॥ जगन् के अन्तर का- सब लोगों के अन्तःकरण का-अच्छी तरह अनुसंधान करना ही ध्यान है और यह ध्यान तथा शान एक ही रूप है ॥ १२॥ प्रागी संसार में श्राकर कुछ चतुर होने पर भूमंडल की अनेक बातों का मनन या विचार करने लगता है।॥ १३ ॥ उस राम का झंडा प्रगटरूप से फहरा रहा है वह आत्माराम पानधन है: चन्द विश्वम्भर सर्वत्र विद्यमान है। परन्तु बड़े भाग्य से उसकी प्राप्ति होती है॥२४॥हम ज्यों ज्यों उपासना की घाह पाना चाहते हैं त्यों त्यों वह और विस्तृत हो होतो जाती है। सच है, उसकी महिमा अवर्णनीय है ॥ १५ ॥ दृष्टा कहते हैं देखनेवाले को और साक्षी कहते हैं जाननेवाले को । उस अनन्तरूपी अनंत को पहचानना चाहिए॥१६॥ जब भलों की संगति होः परमात्मा की कया श्रीर अध्यात्म-निरूपण से प्रीति हो, तब कुछ मन को विश्रान्ति मिल सकती है ॥ १७ ॥ इतना होने पर भी, सन्देह नाश करनेवाला अनुभव-शान होना ही चाहिए क्योंकि अनुभव बिना समाधान मिल कैसे सकता है ? ॥ १८ ॥ मूल संकल्प ही हरिसंकल्प और मूलमाया के व्यापार का ही रूप जगत् के अन्तःकरण में दिखता है ॥ १६ ॥ उपा- सना ज्ञानस्वरूप है, परन्तु ज्ञान के अस्तित्व में चौथे देह का श्रारोप है, इस कारण सव संकल्प को छोड़ कर, विज्ञानरूप विदेहावस्था प्राप्त करना चाहिए ॥ २०॥ बस, वही विशाल परब्रह्म है, वह श्राकाश की तरह सर्वव्यापक और सघन है, पतला है, कोमल है-कैसा कहा जाय? ॥ २१ ॥ उपासना ज्ञान को कहते हैं और ज्ञान से परमेश्वर मिलता है, उसीसे योगियों को समाधान होता है ॥ २२ ॥ अच्छी तरह विचार करने पर जान पड़ता है कि, स्वयं ही उपासना है। एक जाता है और एक देह धर कर पाता है ॥ २३ ॥ परम्परा से ऐसा ही गोलमाल होते पाया है, और अब भी सृष्टि का वही हाल है ॥ २४ ॥ वन पर वनचरों की सत्ता है, जल पर जलचरों की सत्ता है और भूमंडल पर भूपालों की सत्ता है। इसी प्रकार सब का हाल है ॥ २५ ॥ जो हलचल करेगा उसे सामर्थ्य अवश्य ही प्राप्त होगा; परन्तु उसमें भगवान् का अधिष्ठान चाहिए ॥ २६ ॥ यह तो सच है कि, कर्ता जगदीश है; 11