पृष्ठ:दासबोध.pdf/६५

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दासबोध की आलोचना । नीति और धर्म के बल पर बद्धजनों ( अनीतिमान और अधर्मी लोगों ) को अपने दवाब में रखकर अनीति और अधर्म का पराभव नहीं कर सकते। सारांश, नीति और धर्म की रक्षा करने तथा अनीति और अधर्म का उन्मूलन करने के लिए किसी एक शासक- संस्था की आवश्यकता होती है । उसोका नाम राज्यसंस्था है । स्वधर्म का विरोध करने- वाले हजारों वद्धजन प्रत्येक समाज में होते हैं। नास्तिक और पाखण्डी लोग तो देव और धर्म के विरुद्ध झगड़ा मचाने का बीड़ा हो उठाये रहते हैं । सिद्ध और साधक जन तीन तप करके महाभाग्य से परमार्थ प्राप्त करते हैं, ज्ञान का अनुभव करते हैं; परन्तु तामसवृत्ति में ड्वे हुए, बद्धावस्था में रह कर मिथ्या पदार्थ-मुख में ही आनन्द मान- नेवाले, मूढ़ लेगों को पूर्वोक्त सजनों की पारमार्थिक संस्था का रहस्य समझ नहीं पड़ता---- इस लिए वे द्वेष करते हैं, उनकी निन्दा करते हैं । इतना ही नहीं, वे हमारी संस्था भंग करने का भी प्रयत्न करते हैं। ऐसे दुष्ट और अधम लोगों से धर्म की रक्षा करने के लिए एक शासक संस्था अवश्य चाहिए । जहाँ न्याय और धर्म का प्रसार होता है---जहाँ मुमुक्षु वर्ग का उदय होता है-जहाँ स्वतन्त्रता की इच्छा रखनेवाले लेग बढ़ने लगते है-वहाँ समाज का नियमन, प्रबन्ध और शासन करने के लिए, राज्यसंस्था निर्माण करने की आवश्यकता प्रतीत होती ही है। सच पूछो तो परमार्थ-प्राप्ति के लिए यन करनेवाले समाज में नीति और धर्म के बल पर स्थापित की हुई राज्यसंस्था आप ही आप दखने लगती है। • इस राज्यसंस्था का तत्व दासबोध में अति मार्मिकता से प्रतिपादित किया गया है। व्यक्तिभून नर-देह का आश्रय करके रहनेवाला आत्मा ही 'जाणीव' या ज्ञानरूप है। मायोत्पादित देह का आवरण होने के कारण उस आत्मा का ज्ञान अपूर्ण रहता है। पूर्ण ज्ञान का अखण्ड निधि जो परात्पर परमात्मा है, उसके साथ सायुज्यता प्राप्त होने के लिए, इस अपूर्ण ज्ञानरूप आत्मा को, अपने से अधिक ज्ञान के अधिष्ठान का आश्रय करना पड़ता है। रायाचे सत्तेने चालते, परन्तु अवधीं पञ्चभूते ।। मुळी अधिक जाणीवेचे ते, अधिष्ठान आहे ॥ ४ ॥ द०१५ स०४ राजा अथवा राज्यसंस्था अधिक ज्ञान का अधिष्ठान है यह सिद्धान्त प्रतिपादन करने के लिए दृष्टान्तः- दुरस्ता दाटल्या फौजा, उंच सिंहासनी राजा। याचा विचार समजा, अन्तर्यामी ॥२॥ १५--३ हजारों सैनिकों का समूह सामने खड़ा रहता है; पर-राजा ऊँचे सिंहासन पर विराजमान होकर अपने विशेष अधिकार से सब को आज्ञा देता है-इसी तरह लाखों, करोड़ों लोगों के समाज पर, विशेष ज्ञान के कारण, परमेश्वररूपी राज्य-संस्था शासन करती है।