पृष्ठ:दासबोध.pdf/६७

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२० दासबोध की आलोचना । ब्राह्मणमण्डळ्या. मेळवाव्या । भत्तामण्डळ्या मानाच्या । सन्तमण्डळ्या शोधाव्या । भूमण्डळीं ॥ १४ ॥ परमात्मा के ज्ञानपूर्वक भजन से दशों दिशाचे गूंज उठनी चाहिए । इस उपाय से कर्म- मागी कर्मठ ब्राह्मण, ज्ञानमागी साधु सन्त और केवल भजनप्रिय, सब जाति और वर्ण के भक्तजन, एक दिल से, प्रेम-पूर्वक, एकत्र हो सकते हैं। धर्मस्थापना करना सिद्धों का-साधुओं का--मुख्य कर्तव्य है:- ऐसा जो महानुभाव । तेणे करावा समुदाय । भक्तियोगें देवाधिदेव । आपुला करावा ॥ ३२ ॥ १२-१० शाहाणे करावे जन । पतित करावे पावन । सृष्टीमधे भगवद्भजन । वाढवाचे ॥ ३३ ॥ ऐसे महानुभावों को समुदाय एकत्र करना चाहिए और भक्तियोग से उस देवाधिदेव परमात्मा को अपनाना चाहिए । ले.गों में नाना प्रकार की चतुराई फैलाना चाहिए । पतितों को पावन करना चाहिए । और संसार भर में भगवद्भजन बढ़ाना चाहिए । सिद्धों को इस धर्मस्थापना का प्रवन्ध अपने ही जीवन भर के लिए न करना चाहिए, क्योंकि :- आपण अवचितें मरोन जावें । मग भजन कोणे करावें। या कारणे भजनास लावावें । बहुत लोक ॥ ३३ ॥ १२-१० अचानक एक दिन मृत्यु हो जाने पर फिर भजन कै.न करेगा? इसलिये वहुत लेगों का समुदाय एकत्र करके, उसे भजन में लगाना चाहिए । किसी मत का पूर्ण प्रसार करने के लिए अकेले मनुष्य की अपेक्षा वह जनघटित समाज, सभ्य-समुदाय या मण्डल अधिक उपयोगी है । आज कल के बहुतेरे लेग कहते हैं कि यह प्रथा नई है. यहाँ विदेशियों ने चलाई है; पर देखना चाहिए कि श्री.समर्थ कितने दिन पहले अपने दासवेोध में इसका वर्णन --एक जगह नहीं अनेक स्थले पर----कर गये हैं। सभा, समाज और मण्डलियों का उपयोग वर्तमान समाज के लेग जानने लगे हैं; पर इस विषय में भी बहुत सी बातें अभी दासबोध से जान कर अमल में लाना वाकी हैं । अस्तु, दो चार व्यक्तियों का मन हाथ में कर लेने से कुछ अधिक लाभ नहीं । महत्कार्य की सिद्धि के हेतु बहुतेरों का मनोगत जानना चाहिए :- जेणे बहुतांस घडे भक्ती । ते हे रोकडी प्रबोधशकी। बहुतांचे मनोगत हाती घेतले पाहिजे ॥ ३७॥ !