पृष्ठ:दासबोध.pdf/६८

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उक्त संस्थायें कैसे स्थापित करना चाहिए। 3 सिद्धों में प्रवोध-शक्ति-दूसरों को वोध करने की शक्ति-वक्तृत्त्वशक्ति का होना अत्यन्त आवश्यक है। जव तक यह शक्ति न होगी तव तक वहुत लोगों का मन अपने हाथ आ जाना कठिन है, नहीं नहीं असम्भव है और यदि उनका मनोगत न जान पाया, तो समुदाय में मिला कर उन्हें भक्ति में कैसे लगा सकते हैं ? इस काम में बहुत उतावली भी न करनी चाहिए । अन्यथा अनीतिमान् , अधार्मिक, स्वार्थी, बद्ध ले.गों से विघ्न आ पड़ने की अधिक सम्भावना है। यह बात हम ऊपर भी कह चुके हैं। दासबोध में इस विषय का सब से अधिक विवेचन किया गया है---धर्म ही इस ग्रन्थ का आलोच्य विपय है । हमने यहाँ संक्षेप में बतलाया है। अधिक जानने की उत्कण्ठा, रखनेवालों के मूल ग्रन्थ का ही मनन करना चाहिए। (३) राज्यसंस्था इस संस्था का स्थापित करना भी सिद्ध लेगों का-साधु और निस्पृह लोगों का महन्त पुरुषों का उतना ही ज़िम्मेदारी का कर्तव्य है, जितना नीति और धर्म की संस्थाओं के विषय में है। इस काम के लिए साधुओं को बहुत बड़ा समुदाय करना पड़ता है, और उसके दृढ़तापूर्वक अपने अधीन . रख कर सदा कर्तव्य में तत्पर रखना पड़ता है। श्रीसमर्थ इस विषय में कहते हैं समुदाच पाहिजे मोठा । तरी तनावा असाव्या बळकटा। मठ करून ताठा । धरूँच नये ॥ २२॥ भारी समुदाय को दृढ़ता-पूर्वक अपने अधिकार में तो रखना ही चाहिए, पर बड़े दम- दिलासे के साथ समुदाय से काम लेना चाहिए; क्योंकि समुदाय बना कर उसके साथ अकड़बाजी नहीं कर सकते । अकड़वाजी करने से फूट पैदा हो जाती है। अस्तु, जय ऐसा समुदाय हो जाता है, तब सब लोगों में परमार्थबुद्धि मोक्ष की बुद्धि-धड़ाके के साथ जागृत होने लगती है :- ठाई ठाई उदण्ड तावे । मनुष्यमात्र तितुके झौथे। चहुँकडे उदण्ड लाँबे । परमार्थबुद्धी ॥ २७ ॥ १५-२ आत्मवत्सर्वभूतेषु " के अनुसार सब लोगों को, सब समाज को, सब राष्ट्र को, आत्म- वत् मानना हो राजकीय दृष्टि से 'परमार्थ बुद्धि' है । जब यह बुद्धि समुदाय में-बद्ध- जन-समाज में सम्पूर्ण राष्ट्र में प्रकाशित होकर दृढ़ हो जाती है, तब नीति और धर्म की संस्थाओं की रक्षा होती है । इस प्रकार जो समुदाय व्याप–विस्तृत प्रयत्न करता है और धक-धको सहता है वह देखते देखते भाग्य-शिखर पर चढ़ जाता है---परमार्थ को पहुँच जाता है :- व्याप आटोप करिती । धके चपेटे सोसिती। तेणे प्राणी सदेव होती । देखत देखता ॥७॥