पृष्ठ:दासबोध.pdf/७०

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दासबोध की विशेषता । R ? धार्मिक और राजकीय दशा, पूरी तौर से ध्यान में लाकर समर्थ ने यह ग्रन्थ स्वतन्त्र बुद्धि से बनाया है। उपनिषद्, गीता और भागवत आदि संस्कृत ग्रन्थों के वेदान्त-विषयक सिद्धान्तों को समर्थ ने प्रमाणभूत अवश्य माना है; परन्तु प्राचीन सिद्धान्तों का जो विपरीत अर्थ समाज के मन में भर गया था, उसको इस अन्य में दूर किया है। दूसरी विशेषता इस ग्रन्थ में यह है कि उसमें यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि हमारा वेदान्त निरा- शावादी या आलस्यवादी नहीं है । तिस पर भी ऐसे बहुतेरे लोग समाज में देख पड़ते हैं, जो संन्यासी, वैरागी और साधु का वेप बनाकर, सब लौकिक कार्यों का त्याग करके, दूसरों के भरोसे पेट भरते हैं । यद्यपि ये लोग लोकोद्धार का कोई महत्कार्य करते हुए देख नहीं पड़ते, तथापि बहु-जन-समाज में बड़े ज्ञानी, परमार्थी और सिद्ध पुरुष माने जाते हैं। हमारे वेदान्त-ग्रन्थ जोर से पुकार कर यही शिक्षा देते हैं कि अरे भाई, कर्म-त्याग को संन्यास, विरक्ति या ज्ञान नहीं कहते; और लोगों की भाँति, किंवहुना अन्य जनों से अच्छी तरह,संसार के सब काम करते हुए, उन कमों के फल की आशा-भोग में व्यासक्ति- न रखना ही सच्चा ज्ञान है सच्चा संन्यास है--सच्चा वैराग्य है । अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियाः॥१॥ भ० गी० अ०६। जो कर्म-फल का आसरा न रखकर स्ववर्णाश्रमोचत कर्म करता है वही संन्यासी है और वही योगी है । जिसने अग्निहोत्रादि सत्कों का त्याग किया है, या जिसने कर्तव्य कर्मों का त्याग किया है, वह संन्यासी अथवा योगी नहीं है। परन्तु इस सिद्धान्त का त्याग करके लोग परोपजीवी. आलसी और स्थाणुवत्--जड़ या अचल की भाँति हो गये । यह जीवितक्रम सिद्ध और संन्यासी के स्वभाव के विरुद्ध है यह बात समर्थ ने भिक्षा-निरूपण नामक समास में कही है। परमार्थज्ञानी सिद्ध लोगों को चाहिए कि वे लोगों को परमार्थ का रास्ता दिखावें। यह सिद्धान्त दासबोध में जगह जगह पर प्रतिपादन किया गया है। महन्त-लक्षण, निस्पृह का बर्ताव, निस्पृह-लक्षण, निस्पृह- व्याप-लक्षण ' और 'निस्पृह-सिखापन ' आदि कई पूरे पूरे समासों में भी यही वर्णन है। दासबोध की यह विशेषता सदा ध्यान में रखने योग्य है। सिद्ध और ज्ञानी पुरुपों के लौकिक कर्तव्य जितनी स्पष्टता और विस्तारपूर्वक इस ग्रन्थ में बताये गये हैं, वैसे और कहाँ देखने में नहीं आते । तीसरी विशेषता यह है कि दासबोध में समुदाय के द्वारा परमार्थ- प्राप्ति का मार्ग बतलाया है; परन्तु प्राचीन वेदान्त-ग्रन्थों में सिर्फ यही बतलाया गया है कि व्यक्तिमात्र को नीति और धर्म या भक्ति की प्राप्ति किस प्रकार कर लेनी चाहिए । उनमें इस बात का विचार नहीं किया गया कि समुदाय बनाकर समाज को नीति और धर्म के मार्ग में कैसे लगाना चाहिए । इस विषय का निरूपण ही दासबोध का मुख्य रहस्य है । . 6 >$ , साँचा:सहीसाँचा:सही