पृष्ठ:दासबोध.pdf/७१

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दासबोध की आलोचना । १४-तत्कालीन परिस्थिति । इस विशेषता का कारण महाराष्ट्र की उस समय की परिस्थिति है। यदि परमार्थ का और उसकी प्राप्ति के साधनों का इस प्रकार स्पष्ट और विस्तृत विवेचन न किया जाता, तो उस समय बद्ध या परतन्त्र समाज को कोई लाभ न होता । उस समय की सामाजिक दशा का वर्णन स्वयं समर्थ ने दासबोध से किया ही है। राज्यसंस्था परकीय और विधर्मी लोगों के अधीन थी। नीति और धर्म का उच्छेद हो रहा था । परकीय लोग हिन्दू प्रजा की हर तरह से दुर्दशा कर रहे थे। हिन्दू-समाज बिलकुल फूट गया था। दासबोध के कलि-धर्म-निरूपण में प्रायः इस परिस्थिति का वर्णन है—मुसलमानों का वैभव देख कर लोग अपने आचार, विचार, शास्त्र सिद्धान्त, रीति-रवाज, देव-धर्म और परिपाटी आदि छोड़ने लगे। अपने देवस्थानों का त्याग करके दाउद-उल-मुल्क नाम के मुसलमान पीर को भजने लगे। कितने ही लोग तुर्क या मुसलमान हो गये। ब्राह्मणों के बुद्धि मारी गई । शुद् ब्राह्मणों के गुरु वन वैठे । मानसिक दुर्वलता के कारण ब्राह्मण भी शन्नों का उपदेश सुनने लगे। शूद्र ब्राह्मणों का आचार करने लगे और ब्राह्मण व्यभिचार में फंस कर आपस में कलह करने लगे । वर्णव्यवस्था भ्रष्ट हो गई। कोई किसीकी सुनता समझता न था। इस प्रकार नीति और धर्म का दवाव जाता रहा । तीर्थक्षेत्र भ्रष्ट किये गये । मूर्तियाँ खण्डित की गई । स्त्रियों का सतीत्व हरण किया गया-ऐसी अवस्था देख कर ही समर्थ ने शके १५५४ में अर्थात् सन् १६३२ ईसवी में, लोकोद्धार का सङ्कल्प किया-नीति, धर्म और राज्य की स्थापना करके समाज को परमार्थ-मार्ग में लगाने का निश्चय किया। उसी निश्चय का मूर्तिमान् फल यह दासबोध ग्रन्थ है । १५--साधारण तौर पर चार प्रकार की विवेचन-पद्धति । यह मानवी समाज आज हजारों वर्षों से जो लगातार प्रयत्न कर रहा उसका विचार अनेक दृष्टियों से किया जा सकता है । (१) कितने ही शास्त्रज्ञ इस समाज का आदि से लेकर अब तक का इतिहास देख कर, उस यत्न के तात्पर्य का विचार करते हैं। वे इस विचार से इतना ही मालूम कर सकते हैं कि यह समाज अमुक अमुक चरित्र आज तक कर चुका है । यह बात उसके अगले चरित्र से जानी जा सकती है कि अव आगे यह समाज क्या क्या लीला करेगा। उसके सम्बन्ध में पहले ही कुछ कहना इतिहास का . काम नहीं है। इस पद्धति को समाज के यत्न का विचार करने की “ ऐतिहासिक पद्धति " कहते हैं । (२) बहुत से शास्त्रज्ञ इस बात का विचार करते हैं कि यत्न करते समय यह समाज कौन कौन रूप और शरीर धारण करता है। ये शास्त्रज्ञ बड़ी उत्सुकता के साथ इस वात का विचार करते हैं कि यत्न करते समय, समाज एक-सत्ताक रहता है या बहुजन- सत्ताक रहता है; चातुर्वर्ण्य नियमों के अनुसार चलता है या एक जाति में ही रहता है