पृष्ठ:दासबोध.pdf/७३

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दासबोध की आलोचना । 1 जाति का अन्तिम हेतु क्या है । इसका कारण यही है कि वे समाज की बाहरी और भीतरी उपाधियों को ही ओर ध्यान देते हैं वे लोग इन उपाधियों को अलग करके शुद्ध, विमल और निरुपाधेि आत्म-स्वरूप की ओर ध्यान नहीं देते । उसको ओर ध्यान रख कर मानव-समाज के यत्न का, जिन यूरोपीय तत्त्ववेत्ताओं ने विचार किया है, उनमें से हेगल के विचार श्रीसमर्थ के विचारों से बहुत कुछ मिलते हैं। यह तत्वज्ञ वेदान्ती था । इसने अपने Philosophy of History नामक ग्रन्थ में, अध्यात्म दृष्टि से, मानव- समाज के अन्तिम हेतु का विवरण किया है। इसका सारांश नीचे दिया जाता है; जिससे पाठकों को मालूम हो जायगा कि दासबोध का मत हेगल के मत से कितना मिलता है। १७--हेगल और समर्थ के मत में समानता। यह जग आत्मा और माया, इन दो घटकों से बना हुआ दिखलाई देता है । जितना कुछ चित्खरूप है वह आत्मा है और जो कुछ पंचभूतात्मक है, वही माया है । मानव-समाज के इतिहास में पंचभूत अर्थात् नदी, पहाड़, हवा, पानी आदि का बड़ा महत्त्व है। परन्तु इन मायावी पञ्चभूतों से हजारगुना अधिक महत्त्व, मानव जाति के इतिहास में आत्मा का है, इसलिए इस प्रधान घटक आत्मा को प्रगति और उसके मूर्त अवतार के ही इतिहास को, मानव जाति का इतिहास कहना चाहिए। माया का मुख्य लक्षण जड़ता, परतन्त्रता किंवा पद्धता है; और आत्मा का मुख्य लक्षण सूक्ष्मता, स्वतन्त्रता अथवा मोक्ष है। आत्मा स्वयम्भू, खतन्त्र और वसंवेद्य है-अर्थात् उसे वही जान सकता है। आत्मा अपने मुख्य रूप को, अर्थात् मोक्ष-मुक्ति या स्ततन्त्रताको ढूँढ़ता रहता है। इसी हूँढ़ने के प्रयत्न को मानव-इतिहास कहते हैं । इस इतिहास का सूक्ष्म रीति से विचार करने पर जान पड़ता है कि वर्तमान यूरोपियन या जर्मन समाज को यह मालूम हो गया है कि हम सब मनुष्य मुक्त है अथवा मुक्त होने के योग्य हैं । ग्रीक ओर रोमन लोगों को केवल इतना ही मालूम हुआ था कि कुछ मनुष्य मुक्त होने योग्य है; और हिन्दू, चीनी आदि पूर्वो- लोगों को इतना ही मालूम था और है कि मुक्त केवल एक ही है। आत्मा के मुक्त स्वरूप के विषय में, इन तीन समाजों के ऐसे भिन्न भिन्न विचार होने के कारण ही यूरोपियन लोग पूर्ण स्वतन्त्र हैं; ग्रीक और रोमन लोग अंशतः स्वतन्त्र थे, और हिन्दू तथा चीनी लोग पूर्ण परतन्त्र अथवा वद्ध हैं । इस प्रकार वद्धता, मुमुक्षा और मुक्ति ही आत्मा के इतिहास का, अर्थात् जग के इतिहास का, क्रम है। अतएव मानव समाज के इस सारे प्रयत्न का अन्तिम उद्देश मुक्ति- मोक्ष या स्वतन्त्रता है । यही स्वतन्त्रता, यही मोक्ष, यही स्व-संवेद्यता आत्मा की तत्ता या तत्य है । इस तत्त्व में जा मिलने की इच्छा करनेवाला, अर्थात् मुमुक्षु आत्मा ही, धर्म, नीति और राज्य ये तीन रूप धारण करता है। इनमें से तीसरे रूप अर्थात् राज्य