पृष्ठ:दासबोध.pdf/७४

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हेगल और समर्थ के तत्त्वज्ञान में मतभेद और हेगल का भ्रम । . २७ के चरित्र का नाम राजकीय इतिहास हे । ज्योंही आत्मा राज्यरूप से मूर्त होकर अच- तीर्ण हुआ; सोही समझ लेना चाहिए कि अव खतन्त्र स्थिति प्राप्त कर लेने का मार्ग खुल गया। इस मार्ग को खोलनेवाले सीज़र और नेपोलियन के समान वीर पुरुषों में राजस, तामस और सात्त्विक गुण होते हैं । उन्हींके प्रभाव से जग का उद्धार और उसकी प्रगति होती है, अर्थात् आत्मा अपनी तत्ता अथवा तत्त्व या पूर्ण खतन्त्रता की ओर जाता है। ऐसे ही लोगों को अवतारी या कोर पुरुष कहते हैं । राज्य यदि उस परमात्मा अथवा जीवात्मा की तत्ता का अधिष्ठान या मूर्त खरूप है, तो वही उत्तम है जिसमें राज्य के हित की दृष्टि, उस राज्य के घटक सारे मनुष्यों के हित की दृष्टि से सब तरह से मिलती हो । इस प्रकार का मेल होने के लिए, प्रत्येक मनुष्य को आत्मा के तत्व की, या परमार्थ की, पहचान होनी चाहिए। यह पहचान करा देने का काम, राष्ट्र की शिक्षा सम्बन्धी अथवा और इसी प्रकार की अनेक संस्थ औं का है । इन संस्थाओं से राज्य-घटक व्यकिओं में अध्यात्म-ज्ञान की ओर ले जानेव.ले सात्विक और राजस गुणों का प्रादुर्भाव होता है। ऐसी अनेक संस्थाओं का विचार हेगल ने अपने फिलासफी आफ हिस्ट्री ( Philosophy of History ) में नहीं किया है; परन्तु श्रीसमर्थ ने अपने दासबोध में किया है १८--हेगल और समर्थ के तत्त्वज्ञान में मतभेद और हेगल का भ्रम । ऊपर के अत्यन्त संक्षिप्त पृथक्करण से पाठकों को यह मालूम हो गया होगा कि दासबोध और हेगल के तत्त्वज्ञान में कितनी समता है । परन्तु हेगल और श्रीसमर्थ स्व.मी रमदास के तत्त्वज्ञान में एक जगह ध्यान देने योग्य एक बड़ा मतभेद है । वह यह कि हेगल ने अपनी भ्रममूलक समझ कर ली कि हिन्दू ले.गों के मत से एक ही मुक्त है और कार्की सव वद्ध है । हेगल ने अपने इतिहासविषयक व्याख्यान सन् ई. १८२२ से १८३१ तक के दश वर्षों में रचे । उस समय महाराष्ट्र का इतिहास यूरोपवले. को बिलकुल न मालूम था । सत्रहवें शतक में आत्मा की सत्ता का खोज करने के लिए मराठों ने जो प्रचण्ड क्रान्ति को, वह हेगल को न मालूम थी । उपनिषदों की तरह यदि समर्थ के अन्य हेगल के देखने में आये होते, तो उसे यह बात अच्छी तरह मालूम हो जाती कि हिन्दू लोगों ने जिस प्रकार आत्मा को तत्ता का खोज किया, उसी प्रकार उस तत्ता को मूर्त खरूप देने का प्रयत्न रामदास, और शिवाजी ने किया। सच तो यह है कि समर्थ रामदास ने स्पष्ट कहा है कि सब लोग मुक्त हैं:- कोणासीच नाहीं बन्धन । भ्रान्तिस्तव भुलले जन ॥ ५७ ॥ इसलिए कहने की आवश्यकता नहीं कि महाराष्ट्र-इतिहास और महाराष्ट्र-साहित्य के अज्ञान के कारण हेगल ने उपर्युक्त असल्य विधान किया है । इसके सिवा हेगल ने जिस समय अपने