पृष्ठ:दासबोध.pdf/८८

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समास ] ७ सद्गुरु स्तुति। प्राय अनुभवी लोग जानते हैं ॥ २५ ॥ जो बड़े से बड़ी है; जो ईश्वर का ईश्वर है उसको, उसकेही अंश में, अर्थात् मायाही के रूप में, श्रव मेरा नमस्कार है ॥ २६॥ चौथा समास--सद्गुरु-स्तुति। ॥ श्रीराम ॥ अब सद्गुरु का वर्णन कैसे करूं? जहां माया स्पर्श नहीं कर सकती वह स्वरूप मुझ श्रशान को कैसे जान पड़े ? ॥ १ ॥ जो ( सद्गुरु परब्रह्म ) जाना नहीं जा सकता और जिसके विषय में श्रुति नेति नेति कहती है उसका वर्णन करने के लिये मुभा भूर्ख की मति का कहां टिकाना ? ॥२॥ मुझे यह विषय नहीं जान पड़ता । इस लिये दूरही से मेरा नमस्कार । हे गुरुदेव ! मुझे वह शनि दो जिससे मैं तुम्हारा पारावार पा जाऊं ॥३॥ स्तुति करने की दुस्साध्य श्राशा थी, परंतु माया का भरोसा टूट गया। अतएव हे सद्गरु स्वामी अब जैसे होगे वैसेही रहो ॥४॥ मन में इच्छा थी कि माया के वल से स्तुति करूंगा । परन्तु माया लजित हो गई; अब क्या करूं? ॥ ५॥ मुख्य परमात्मा की कल्पना नहीं की जा सकती, इसलिये उसकी प्रतिमा बनानी पड़ती है। उसी प्रकार माया के योग से की महिमा वर्णन करूंगा ॥६॥ जिस प्रकार अपने भाव के अनुसार मन में देवता का ध्यान किया जाता है उसी प्रकार अब मैं इस स्तवन में की स्तुति करता हूं ॥ ७ ॥ हे सद्गुरुराज, तेरी जय हो, जय हो । हे विश्वम्भर विश्ववीज, परम- पुरुप, मोक्षध्वज और दीनबन्धु, तेरे ही अभय-रूप कर से यह दुर्निवार माया इस प्रकार मिट जाती है जैसे सूर्यप्रकाश से अंधकार भग जाता है ॥ - ॥ सूर्य अंधकार का निवारण करता है; परन्तु रात होने पर फिर जगत् में अन्धकार छा जाता है ॥ १० ॥ परन्तु हमारा स्वामी सद्गुरु ऐसा नहीं है । वह जन्म मृत्यु, अर्थात् आवागमन, नाश करता है और अज्ञानरूप अन्धकार की जड़ ही नाश कर देता है ॥ ११॥ सुवर्ण का लोहा कभी नहीं हो सकता, इसी प्रकार गुरु का भक्त कभी सन्देह में पड़ता ही नहीं ॥ १२॥ कोई नदी गंगा में मिलने पर वह भी गंगा हो जाती है। फिर यदि वह अलग की जाय तो कदापि नहीं हो सकती