पृष्ठ:दासबोध.pdf/९५

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दासबोध। [ दशक १ के प्रताप से मिली है ॥ ३०॥ किंवा ये अक्षय आनन्द से पूर्ण सुख की नौकाएं वह रही हैं, जो अनेक प्रकार के प्रयोगों के लिये जगत् के लोगों को प्राप्त हुई हैं ॥ ३१ ॥ अथवा यह निरंजन, अर्थात् परब्रह्म की संपत्ति है, यातो यह विराट की योगस्थिति है; नहीं नहीं, यह भक्ति की फलश्रुति फलित हुई है ! ॥ ३२ ॥ यातो यह ईश्वर का आकाश से भी अधिक व्यापक पवाड़ा है । कवि की प्रबन्धरचना ब्रह्मांडरचना से भी बड़ी होती है ॥ ३३ ॥ अस्तु, अब यह वर्णन बस हुआ । वास्तव में कवीश्वर लोग जगत् के आधार हैं; इस लिए उन्हें में साष्टांग नमस्कार करता हूं ॥३४॥ आठवाँ समास-समा-स्तुति । ॥ श्रीराम ॥ अब इस सकल सभा की वन्दना करता हूं, जिस सभा के लिये मुक्ति सुलभ है, और जहां स्वयं सच्चिदानन्द परमात्मा का वास है ॥१॥ नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये रवौ ॥ मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥ १ ॥ भगवान् कहते हैं कि, " मैं न तो वैकुंठ में रहता हूं और न योगियों के हृदय में । हे नारद, मेरे भक्त जिस ठौर में गाते हैं वहीं मैं वास करता हूं" ॥२॥ अतएव, जहां भक्का गाते हैं वही श्रेष्ठ सभा है और वही वैकुंठ है । जहां नामघोष, अर्थात् ईश्वर-नाम-उच्चारण, की गड़गड़ाहट और जयजयकार की गर्जना हो रही है ॥ ३॥ जहां सदा प्रेमी भक्तों के गीत, भगवत्कथा, हरिकीर्तन, वेदव्याख्यान और पुराणों का श्रवण हुना करता है ॥ ४ ॥ जहां पर परमेश्वर के गुणानुवाद, अनेक निरूपणों के संवाद और अध्यात्मविद्या तथा भेदाभेद का मथन हुआ करता है ॥५॥ जहां नाना प्रकार के समाधानों से तृप्ति और अनेक आशंकाओं की निवृत्ति हुआ करती है, जहां वाग्विलास से ध्यानमूर्ति चित्त में बैठती है ॥ ६॥.प्रेमी और भाबुक भत्ता, गंभीर और सतोगुणी सभ्य, रम्य और रसाल गायक, निष्ठावन्त, कर्मशील, आचारशील, दानशील, धर्मशील, शुचिमान, पुण्यशील, अन्तशुद्ध, कृपालु, योगी, वीतरागी, उदास, नियम- कर्ता, निग्रही तापसी, विरक्त, बहुत निस्पृही, अरण्यवासी, दंडधारी, जटाधारी, नाथपंथी, मुद्राधारी, बालब्रह्मचारी, योगेश्वर, पुरश्चरणी,